पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वनलता-तो आप दुःख का अस्तित्व मानने लगे ! आनन्द-(विनम्रता से) अब मैं इस विवाद को न बढ़ाकर इतना मान लेता हूँ कि आपको प्रेम की आवश्यकता है। और आप दुःखी हैं। क्या आप मुझे प्यार करने की आज्ञा देंगी? क्योंकि.... वनलता-'क्योंकि' न लगाइये; फिर प्यार करने में असुविधा होगी। 'क्योंकि' में एक कड़वी दुर्गन्ध है। [रसाल चुपचाप आकर दोनों की बातें सुनता है और समय-समय पर उसकी मुख-मुद्रा में आश्चर्य, क्रोध, और विरक्ति के चिन्ह झलकते हैं] आनन्द-क्योंकि मैं किसी को प्यार नहीं करता, इसलिए आपसे प्रेम करता हूँ। वनलता-(सक्रोध) वाग्जाल से क्या तात्पर्य आनन्द-मैं--मैं । वनलता-हाँ, आप ही का, क्या तात्पर्य है ? आनन्द–मेरा किसी से द्वेष नहीं, इसलिए मै सबको प्यार कर सकता हूँ। प्रेम करने का अधिकारी है। वनलता-कदापि नहीं, इसलिये कि मैं आपको प्यार नहीं करती। फिर आपके प्रेम का मेरे लिये क्या मूल्य है ? आनन्द-तब ! (ओठ चाटने लगता है) वनलता- तब यही कि (कुछ सोचती हुई) मैं जिसे प्यार करती हूँ वही- केवल वही व्यक्ति-मुझे प्यार करे, मेरे हृदय को प्यार करे, मेरे शरीर को--जो मेरे सुन्दर हृदय का आवरण है--सतृष्ण देये । उम प्यास में तृप्ति न हो, एक-एक चूंट वह पीता चले, मैं भी पिया करूं। समझे ? इसमें आपकी पोली दार्शनिकता या व्यर्थ के वाक्यों को स्थान नहीं । आनन्द--(जैसे झेंप मिटाता हुआ) मैं तो पथिक हूँ और संसार ही पथ है। सब 'अपने-अपने पथ पर घसीटे जा रहे है, मैं अपने को ही क्यों कहूँ । एक क्षण, एक युग कहिये या एक जीवन कहिये; है वह एक ही क्षण, कहीं विश्राम किया और फिर चले। वैसा ही निर्मोह प्रेम संभव है। सबसे एक-एक बूंट पीते- पिलाते नूतन जीवन का संचार करते चल देना । यही तो मेरा संदेश है । वनलता--शब्दावली की मधुर प्रवंचना से आप छले जा रहे हैं । आनन्द--क्या मैं भ्रांत हूँ? वनलता--अवश्य ! असंख्य जीवनों की भूल-शूलया में अपने चिरपरिचित को खोज निकालना और किमी शीतल छाया में बैठकर एक चूंट पीना और पिलाना- क्या समझे ! प्रेम का 'एक चूंट' ! बस इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। ६७६ : प्रसाद वाङ्मय