पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७०६

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किनारे बैठ जाती है, खड्गधारिणी भी इधर-उधर देखकर ध्रुवस्वामिनी के पैरों के समीप बैठती है)

खड्गधारिणी––(सशंक चारों ओर देखती हुई) देवि, प्रत्येक स्थान और समय बोलने के योग्य नहीं होता, कभी-कभी मौन रह जाना बुरी बात नहीं है। मुझे अपनी दासी समझिए। अवरोध के भीतर में गूँगी हूँ। यहाँ संदिग्ध न रहने के लिए मुझे ऐसा ही करना पड़ता है।

ध्रुवस्वामिनी––अरे तो क्या तुम बोलती भी हो? पर यह तो कहो, यह कपट-आचरण किस लिए?

खड्गधारिणी––एक पीड़ित की प्रार्थना सुनाने के लिए। कुमार चन्द्रगुप्त को आप भूल न गयी होगी।

ध्रुवस्वामिनी––(उत्कण्ठा से) वही न, जो मुझे बंदिनी बनाने के लिए गये थे।

खड्गधारिणी––(दांतों से जीभ दबाकर) यह आप क्या कह रही हैं? उनको तो स्वयं अपने भीषण भविष्य का पता नहीं। प्रत्येक क्षण उनके प्राणों पर संदेह करता है। उन्होंने पूछा है कि मेरा क्या अपराध है?

ध्रुवस्वामिनी––(उदासी की मुस्कराहट के साथ) अपराध? मैं क्या बताऊँ! तो क्या कुमार भी बन्दी हैं?

खड्गधारिणी––कुछ-कुछ वैसा ही है देवि! राजाधिराज से कहकर क्या आप उनका कुछ उपकार कर सकेंगी?

ध्रुवस्वामिनी––भला मैं क्या कर सकूँगी? मैं तो अपने ही प्राणों का मूल्य नहीं समझ पाती। मुझ पर राजा का कितना अनुग्रह है, यह भी मैं आज तक न जान सकी। मैंने तो कभी उनका मधुर सम्भाषण सुना ही नहीं। विलासितियों के साथ मदिरा में उन्मत्त, उन्हें अपने आनन्द से अवकाश कहाँ!

खड्गधारिणी––तब तो अदृष्ट ही कुमार के जीवन का सहायक होगा। उन्होंने पिता का दिया हुआ स्वत्व और राज्य का अधिकार तो छोड़ ही दिया, इसके साथ अपनी एक अमूल्य निधि भी...। (कहते-कहते सहसा रुक जाती है)

ध्रुवस्वामिनी––अपनी अमूल्य निधि! वह क्या?

खड्गधारिणी––वह अत्यन्त गुप्त है देवि, किन्तु मैं प्राणों की भीख माँगती हुई कह सकूँगी।

ध्रुवस्वामिनी––(कुछ सोचकर) तो जाने दो, छुपी हुई बातों से मैं घबरा उठी हूँ। हाँ, मैंने उन्हें देखा था, वह निरभ्र प्राची का बाल-अरुण! आह! राजचक्र सबको पीसता है, पिसने दो, हम निस्सहायों को और दुर्बलों को पिसने दो।

खड्गधारिणी––देवि, वह वल्लरी जो झरने के समीप पहाड़ी पर चढ़ गयी है,

६८६ : प्रसाद वाङ्मय