पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७०७

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उसकी नन्हीं-नन्हीं पत्तियों को ध्यान से देखने पर आप समझ जायँगी कि वह काई की जाति की है। प्राणों की क्षमता बढ़ा लेने पर वही काई जो बिछलन बनकर गिरा सकती थी, अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलम्बन बन गयी है।

ध्रुवस्वामिनी––(आकाश की ओर देखकर) वह, बहुत दूर की बात है। आह, कितनी कठोरता है! मनुष्य के हृदय में देवता को हटाकर राक्षस कहाँ से घुस आता है? कुमार की स्निग्ध, सरल और सुन्दर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है। किन्तु, उन्हीं का भाई? आश्चर्य?

खड्गधारिणी––कुमार को इतने में ही सन्तोष होगा कि उन्हें कोई विश्वासपूर्वक स्मरण कर लेता है। रही अभ्युदय की बात, सो तो उनको अपने बाहु-बल और भाग्य पर ही विश्वास है।

ध्रुवस्वामिनी––किन्तु उन्हें कोई ऐसा साहस का काम न करना चाहिए जिसमें उनकी परिस्थिति और भी भयानक हो जाय। (खड्गधारिणी खड़ी होती है)

––अच्छा, तो अब तू जा और अपने मौन संकेत से किसी दासी को यहाँ भेज दे। मैं अभी यहीं बैठना चाहती हूँ।

[खड्गधारिणी नमस्कार करके जाती है/और एक दासी का प्रवेश]

दासी––(हाथ जोड़कर) देवि, सायंकाल हो चला है। वनस्पतियाँ शिथिल होने लगी हैं। देखिए न, व्योम-विहारी पक्षियों का झुण्ड भी अपने नीड़ों में प्रसन्न कोलाहल से लौट रहा है। क्या भीतर चलने की अभी इच्छा नहीं है?

ध्रुवस्वामिनी––चलूँगी क्यों नही? किन्तु मेरा नीड़ कहाँ? यह तो स्वर्ण-पिञ्जर है।

[करूण भाव से उठकर दासी के कन्धे पर हाथ रखकर चलने को उद्यत होती है / नेपथ्य में कोलाहल / 'महादेवी कहाँ हैं? उन्हें कौन बुलाने गयी है?']

ध्रुवस्वामिनी––हें-हें, यह उतावली कैसी?

प्रतिहारी––(प्रवेश करके घबराहट से) भट्टारक इधर आये हैं क्या?

ध्रुवस्वामिनी––(व्यंग से मुस्कराती हुई) मेरे अंचल मे तो छिपे नही हैं। देखो किसी कुञ्ज में ढूँढो।

प्रतिहारी––(संभ्रम से) अरे महादेवी, क्षमा कीजिए। युद्ध-सम्बन्धी एक आवश्यक संवाद देने के लिए महाराज को खोजती हुई मैं इधर आ गयी हूँ।

ध्रुवस्वामिनी––होंगे कहीं, यहाँ तो नही हैं।

[उदास भाव से दासी के साथ ध्रुवस्वामिनी का प्रस्थान / दूसरी ओर से खड्गधारिणी का पुनः प्रवेश और कुञ्ज में से अपना उत्तरीय सँभालता

ध्रुवस्वामिनी : ६८७