पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७०८

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हुआ रामगुप्त निकलकर एक बार प्रतिहारी की ओर फिर खड्गधारिणी की ओर देखता है]

प्रतिहारी––जय हो देव! एक चिन्ताजनक समाचार निवेदन करने के लिए अमात्य ने मुझे भेजा है।

रामगुप्त––(झुँझला कर) चिन्ता करते-करते देखता हूँ कि मुझे मर जाना पड़ेगा / ठहरो (खड्गधारिणी से) हाँ जी, तुमने अपना काम तो अच्छा किया, किन्तु मैं समझ न सका कि चन्द्रगुप्त को वह अब भी प्यार करती है या नहीं?

[खड्गधारिणी प्रतिहारी की ओर देखकर चुप रह जाती है]

रामगुप्त––(प्रतिहारी की ओर क्रोध से देखता हुआ) तुमसे मैंने कह न दिया कि अभी मुझे अवकाश नहीं, ठहर कर आना।

प्रतिहारी––राजाधिराज! शकों ने किसी पहाड़ी राह से उतर कर नीचे का गिरि-पथ रोक लिया है। हम लोगों के शिविर का सम्बन्ध राज-पथ से छूट गया है। शकों ने दोनो ही ओर से घेर लिया है।

रामगुप्त––दोनों ओर से घिरा रहने में शिविर और भी सुरक्षित है। मूर्ख! चुप रह (खड्गधारिणी से) तो ध्रुवदेवी, क्या मन-ही-मन चन्द्रगुप्त को... है न मेरा सन्देह ठीक?

प्रतिहारी––(हाथ जोड़ कर) अपराध क्षमा हो देव! अमात्य, युद्ध-परिषद्में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

रामगुप्त––(हृदय पर हाथ रखकर) युद्ध तो यहाँ भी चल रहा है, देखता नहीं, जगत् की अनुपम सुन्दरी मुझ से स्नेह नहीं करती और मैं हूँ इस देश का राजाधिराज!

प्रतिहारी––महाराज, शकराज का सन्देश लेकर एक दूत भी आया है।

रामगुप्त––आह! किन्तु ध्रुवदेवी! उसके मन में टीस है (कुछ सोच कर) जो स्त्री दूसरे के शासन में रहकर और प्रेम किसी अन्य पुरुष से करती है, उसमें एक गम्भीर और व्यापक रस उद्वेलित रहता होगा। वही तो ..नहीं, जो चन्द्रगुप्त से प्रेम करेगी वह स्त्री न जाने कब चोट कर बैठे? भीतर-भीतर न जाने कितने कुचक्र घूमने लगेंगे (खड्गधारिणी से) सुना न, ध्रुवदेवी से कह देना चाहिए कि वह मुझे और मुझसे ही प्यार करे। केवल महादेवी बन जाना ठीक नहीं।

[खड्गधारिणी का प्रतिहारी के साथ प्रस्थान और शिखरस्वामी का प्रवेश]

शिखरस्वामी––कुछ आवश्यक बातें कहनी है देव!

रामगुप्त––(चिन्ता से उँगली दिखाते हुए, जैसे अपने-आप बातें कर रहा हो) ध्रुवदेवी को लेकर क्या साम्राज्य से भी हाथ धोना पड़ेगा! नहीं तो

६८८ : प्रसाद वाङ्मय