पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७१२

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[दासी के साथ शिखरस्वामी का प्रवेश]

शिखरस्वामी––महादेवी की जय हो।

[दूसरी ओर से एक युवती दासी के कन्धे का सहारा लिये कुछ-कुछ मदिरा के नशे में रामगुप्त का प्रवेश / मुस्कराता हुआ बौने का खेल देखने लगता है / ध्रुवस्वामिनी उठकर खड़ी हो जाती है और शिखरस्वामी रामगुप्त को संकेत करता है]

रामगुप्त––(कुछ भर्राये हुए कंठ से) महादेवी की जय हो!

ध्रुवस्वामिनी––स्वागत महाराज!

[रामगुप्त एक मंच पर बैठ जाता है और शिखरस्वामी ध्रुवस्वामिनी के इस उदासीन शिष्टाचार से चकित होकर सिर खुजलाने लगता है]

कुबड़ा––दोहाई राजाधिराज की। मुझ हिमालय का कूबड़ दुखने लगा। न तो यह नल-कूबर की बहू मेरे कूबड़ से उठती है और न तो यह बौना मुझे विजय ही कर लेता है।

रामगुप्त––(हँसते हुए) वाह रे वामन वीर! यहाँ दिग्विजय का नाटक खेला जा रहा है क्या?

बौना––(अकड़ कर) वामन के बलि-विजय की गाथा और तीन पगों की महिमा सब लोग जानते हैं। मैं भी तीन लात में इसका कूबड़ सीधा कर सकता हूँ।

कुबड़ा––लगा दे भाई बौने! फिर यह अचल हेमकूट बनना तो छूट जाय!

हिजड़ा––देखो जी, मै नल-कबर की वधू इस पर बैठी हूँ।

बौना––झूठ! युद्ध के डर से पुरुष होकर भी यह स्त्री बन गया है।

हिजड़ा––मैं तो पहले ही कह चुकी मैं युद्ध करना नहीं जानती।

बौना––तुम नल-कूबर की स्त्री हो न, तो अपनी विजय का उपहार समझ कर मै तुम्हारा हरण कर लूँगा। (और लोगों की ओर देखकर उसका हाथ पकड़ कर खींचता हुआ) ठीक होगा न? कदाचित् यह धर्म के विरुद्ध न होगा!

[रामगुप्त ठठाकर हँसने लगता है]

ध्रुवस्वामिनी––(क्रोध से कड़ककर) निकलो! अभी निकलो, यहाँ ऐसी निर्लज्जता का नाटक मैं नहीं देखना चाहती। (शिखरस्वामी की ओर भी सक्रोध देखती है / शिखर के संकेत करने पर वे सब भाग जाते हैं)

रामगुप्त––अरे, ओ दिग्विजयी! सुन तो (उठ कर ताली पीटता हुआ हँसने लगता है। ध्रुवस्वामिनी क्षोभ और घृणा से मुँह फिरालेती है / शिखरस्वामी के संकेत से दासी मदिरा का पात्र ले आती है, उसे देख कर प्रसन्नता से आँखें फाड़ कर शिखर की ओर अपना हाथ बढ़ा देता है)

६९२ : प्रसाद वाङ्मय