पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७१३

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अमात्य, आज ही महादेवी के पास मैं आया और आप भी पहुँच गये, यह एक विलक्षण घटना है। है न? (पात्र लेकर पीता है)

शिखरस्वामी––देव, मैं इस समय एक आवश्यक कार्य से आया हूँ।

रामगुप्त––ओह, मैं तो भूल ही गया था! वह बर्बर शकराज क्या चाहता है? मैं आक्रमण न करूँ, इतना ही तो? जाने दो, युद्ध कोई अच्छी बात तो नही!

शिखरस्वामी––वह और भी कुछ चाहता है।

रामगुप्त––क्या कुछ सहायता भी माँग रहा है?

शिखरस्वामी––(सिर झुका कर गम्भीरता से) नहीं देव, बह बहुत ही असंगत और अशिष्ट याचना कर रहा है।

रामगुप्त––क्या? कुछ कहो भी।

शिखरस्वामी––क्षमा हो महाराज! दूत तो अबध्य होता ही है; इसलिए उसका सन्देश सुनना ही पड़ा। वह कहता था कि शकराज से महादेवी ध्रुवस्वामिनी का (रुक कर ध्रुवस्वामिनी की ओर देखने लगता है––ध्रुवस्वामिनी सिर हिला कर कहने की आज्ञा देती है) विवाह-सम्बन्ध स्थिर हो चुका था, बीच में ही आर्य समुद्रगुप्त की विजय यात्रा में महादेवी के पिताजी ने उपहार में उन्हें गुप्तकुल में भेज दिया, इसलिए महादेवी को वह....।

रामगुप्त––ऐं, क्या कहते हो अमात्य? क्या वह महादेवी को माँगता है!

शिखरस्वामी––हाँ देव! साथ ही वह अपने सामन्तों के लिए भी मगध के सामन्तों की स्त्रियों को माँगता है।

रामगुप्त––(श्वांस लेकर) ठीक ही है, जब उसके यहाँ सामन्त हैं, तब उन लोगों के लिए भी स्त्रियाँ चाहिए। हाँ, क्या यह सच है कि महादेवी के पिता ने पहले शकराज से इनका सम्बन्ध स्थिर कर लिया था

शिखरस्वामी––यह तो मुझे नहीं मालूम?

[ध्रुवस्वामिनी रोष से फूलती हुई टहलने लगती है]

रामगुप्त––महादेवी, अमात्य क्या पूछ रहे हैं?

ध्रुवस्वामिनी––इस प्रथम सम्भाषण के लिए मैं कृतज्ञ हुई महाराज! किन्तु मैं भी यह जानना चाहती हूँ कि गुप्त-साम्राज्य क्या स्त्री-सम्प्रदान से ही बढ़ा है?

रामगुप्त––(झेंप कर हँसता हुआ) हे-हे-हे, बताइए अमात्य जी!

शिखरस्वामी––मैं क्या कहूँ? शत्रु-पक्ष का यही सन्धि-सन्देश है। यदि स्वीकार न हो तो युद्ध कीजिए। शिविर दोनों ओर से घिर गया है। उसकी बातें मानिए, या मर कर भी अपनी कुल-मर्यादा की रक्षा कीजिए। दूसरा कोई उपाय नहीं।

ध्रुवस्वामिनी : ६९३