पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७१५

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शिखरस्वामी––दूसरा कोई उपाय नहीं।

ध्रुवस्वामिनी––(क्रोध से पैर पटक कर) उपाय नहीं, तो न हो निर्लज्ज अमात्य! फिर ऐसा प्रस्ताव मैं सुनना नहीं चाहती।

रामगुप्त––(चौंक कर) इस छोटी सी बात के लिए इतना बड़ा उपद्रव! (दासी की ओर देख कर) मेरा तो कण्ठ सूखने लगा।

[वह मदिरा देती है]

ध्रुवस्वामिनी––(दृढ़ता से) अच्छा, तो अब मैं चाहती हूँ कि अमात्य अपने मंत्रणा-गृह में जायें। मैं केवल रानी ही नहीं, किन्तु स्त्री भी हूँ; मुझे अपने को पति कहनेवाले पुरुष से कुछ कहना है, राजा से नहीं।

[शिखरस्वामी का दासियों के साथ प्रस्थान]

रामगुप्त––ठहरो जी, मैं भी चलता हूँ (उठना चाहता है / ध्रुवस्वामिनी उसका हाथ पकड़ कर रोक लेती है) तुम मुझसे क्या कहना चाहती हो?

ध्रुवस्वामिनी––(ठहर कर) अकेले यहाँ भग लगता है क्या? बैठिए, सुनिए। मेरे पिता ने उपहार-स्वरूप कन्या-दान किया था। किन्तु गुप्त-सम्राट् क्या अपनी पत्नी शत्रु को उपहार में देंगे? (घुटने के बल बैठकर) देखिए, मेरी ओर देखिए। मेरा स्त्रीत्व क्या इतने का भी अधिकारी नहीं कि अपने को स्वामी समझने वाला पुरुष उसके लिए प्राणों का पण लगा सके।

रामगुप्त––(उसे देखता हुआ) तुम सुन्दर हो, ओह, कितनी सुन्दर; किन्तु सोने की कटार पर मुग्ध होकर उसे कोई अपने हृदय में डुबा नहीं सकता। तुम्हारी सुन्दरता––तुम्हारा नारीत्व––अमूल्य हो सकता है। फिर भी अपने लिए मै स्वयं कितना आवश्यक हूँ, कदाचित् तुम यह नहीं जानती हो।

ध्रुवस्वामिनी––(उसके पैरों को पकड़ कर) मैं गुप्त-कुल की वधू होकर इस राज-परिवार मे आयी हूँ। इसी विश्वास पर।

रामगुप्त––(उसे रोक कर) वह सब मैं नही सुनना चाहता।

ध्रुवस्वामिनी––मेरी रक्षा करो। मेरे और अपने गौरव की रक्षा करो। राजा, आज मैं शरण की प्रार्थिनी हूँ। मैं स्वीकार करती हूँ, कि आज तक मैं तुम्हारे विलास की सहचरी नहीं हुई; किन्तु वह मेरा अहंकार चूर्ण हो गया है। मैं तुम्हारी होकर रहूँगी। राज्य और सम्पत्ति रहने पर राजा को––पुरुष को बहुत-सी रानियाँ और स्त्रियाँ मिलती हैं; किन्तु व्यक्ति का मान नष्ट होने पर फिर नहीं मिलता।

रामगुप्त––(घबराकर उसका हाथ हटाता हुआ) ओह, तुम्हारा यह घातक स्पर्श बहुत ही उत्तेजनापूर्ण है। मैं, नहीं। तुम, मेरी रानी? नहीं, नहीं। जाओ, तुमको जाना पड़ेगा। तुम उपहार की वस्तु हो। आज मैं तुम्हें किसी दूसरे को देना चाहता हूँ। इसमें तुम्हे क्यों आपत्ति हो?

ध्रुवस्वामिनी : ६९५