पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७१६

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ध्रुवस्वामिनी––(खड़ी होकर रोष से) निर्लज्ज! मद्यप!! क्लीव!!! ओह, तो मेरा कोई रक्षक नहीं? (ठहर कर) नहीं, मैं अपनी रक्षा स्वयं करूँगी! मैं उपहार में देने की वस्तु, शीतल मणि नहीं हूँ। मुझमे रक्त की तरल लालिमा है। मेरा हृदय उष्ण है और उसमें आत्म-सम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा मैं ही करूँगी। (रशना से कृपाणी निकाल लेती है)

रामगुप्त––(भयभीत होकर पीछे हटता हुआ) तो क्या तुम मेरी हत्या करोगी?

ध्रुवस्वामिनी––तुम्हारी हत्या? नहीं, तुम जिओ। भेड़ की तरह तुम्हारा क्षुद्र जीवन! उसे न लूंगी! मैं अपना ही जीवन समाप्त करूँगी।

रामगुप्त–– किन्तु तुम्हारे मर जाने पर उस बर्बर शकराज के पास किसको भेजा जायगा? नहीं, नहीं, ऐसा न करो। हत्या! हत्या!! दौड़ो! दौड़ो!! (भागता हुआ निकल जाता है। दूसरी ओर से वेग सहित चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्त–– हत्या! कैसी हत्या!! (ध्रुवस्वामिनी को देख कर) यह क्या? महादेवी ठहरिए!

ध्रुवस्वामिनी––कुमार, इसी समय तुम्हें भी आना था! (सकरुण देखती हुई) में प्रार्थना करती हूँ कि तुम यहाँ से चले जाओ! मुझे अपने अपमान में निर्वसन-नग्न देखने का किसी पुरुष को अधिकार नहीं। मुझे मृत्यु की चादर से अपने को ढँक लेने दो।

चन्द्रगुप्त––किन्तु क्या कारण सुनने का मैं अधिकारी नहीं हूँ?

ध्रुवस्वामिनी––सुनोगे? (ठहर कर सोचती हुई) नहीं, अभी आत्महत्या नहीं करूँगी। जब तुम आ गये हो थोड़ा ठहरूंगी। यह तीखी छुरी इस अतृप्त हृदय में, विकासोन्मुख कुसुम में विषैले कीट के डंक की तरह चुभा दूँ या नहीं, इस पर विचार करूँगी। यदि नहीं तो मेरी दुर्दशा का पुरस्कार क्या कुछ और है? हाँ, जीवन के लिए कृतज्ञ, उपकृत और आभारी होकर किसी के अभिमानपूर्ण आत्म-विज्ञापन का भार होती रहूँ––यही क्या विधाता का निष्ठुर विधान है? छुटकारा नहीं? जीवन नियति के कठोर आदेश पर चलेगा ही? तो क्या यह मेरा जीवन भी अपना नहीं है?

चन्द्रगुप्त––देवि, जीवन विश्व की सम्पत्ति है। प्रमाद से, क्षणिक आवेश से, या दुःख की कठिनाइयों में उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं। गुप्त-कुल-लक्ष्मी आज यह छिन्नमस्ता का अवतार किसलिए धारण करना चाहती हैं? सुनूँ भी?

ध्रुवस्वामिनी––नही, मैं न मरूँगी! क्योंकि तुम आ गये हो। मेरी शिविका के माथ चामर-सज्जित अश्व पर चढ़ कर तुम्हीं उस दिन आये थे? तुम्हारा विश्वासपूर्ण मुखमण्डल मेरे साथ आने में क्यों इतना प्रसन्न था?

६९६ : प्रसाद वाङ्मय