पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७१७

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चन्द्रगुप्त—मैं गुप्त-कुल-वधू को आदरसहित ले आने के लिए गया था। फिर प्रसन्न क्यों न होता?

ध्रुवस्वामिनी—तो फिर आज मुझे शक-शिविर मे पहुँचाने के लिए उसी प्रकार तुमको मेरे साथ चलना होगा। (आँखों से आँसू पोंछती है)

चन्द्रगुप्त—(आश्चर्य से) यह कैसा परिहास!

ध्रुवस्वामिनी—कुमार! यह परिहास नहीं, राजा की आज्ञा है। शकराज को मेरी अत्यन्त आवश्यकता है। यह अवरोध, बिना मेरा उपहार दिये नहीं हट सकता।

चन्द्रगुप्त—(आवेश से) यह नहीं हो सकता। महादेवि। जिस मर्यादा के लिए––जिस महत्त्व को स्थिर रखने के लिए, मैंने राजदण्ड ग्रहण न करके अपना मिला हुआ अधिकार छोड़ दिया, उसका यह अपमान! मेरे जीवित रहते आर्य समुद्रगुप्त के स्वर्गीय गर्व को इस तरह पद-दलित होना न पड़ेगा! (ठहर कर) और भी एक बात है। मेरे हृदय के अन्धकार में प्रथम किरण-सी आकर जिसने अज्ञातभाव से अपना मधुर आलोक ढाल दिया था, उसको भी मैंने केवल इसीलिए भूलने का प्रयत्न किया कि - (सहसा चुप हो जाता है)

ध्रुवस्वामिनी—(आँख बन्द किये हुए कुतूहल-भरी प्रसन्नता से) हाँ-हाँ, कहो-कहो।

[शिखरस्वामी के साथ रामगुप्त का प्रवेश]

रामगुप्त—देखो तो कुमार! यह भी कोई बात है? आत्महत्या कितना बड़ा अपराध है!

चन्द्रगुप्त—और आप से तो वह भी नहीं करते बनता।

रामगुप्त—(शिखरस्वामी से) देखो, कुमार के मन में छिपा हुआ कलुष कितना....कितना....भयानक है?

शिखरस्वामी—कुमार, विनय गुप्त-कुल का सर्वोत्तम गृह-विधान है, उसे न भूलना चाहिए!

चन्द्रगुप्त—(व्यंग्य से हँसकर) अमात्य, तभी तो तुमने व्यवस्था दी है, कि महादेवी को देकर भी सन्धि की जाय! क्यों, यही तो विनय की पराकाष्ठा है! ऐसा विनय प्रवंचकों का आवरण है, जिसमें शील न हो। और शील परस्पर सम्मान की घोषणा करता है। कापुरुष! आर्य समुद्रगुप्त का सम्मान....

शिखरस्वामी—(बीच में बात काट कर) उसके लिए मुझे प्राणदण्ड दिया जाय! मैं उसे अविचल भाव से ग्रहण करूँगा परन्तु राजा और राष्ट्र की रक्षा होनी चाहिए।

मन्दाकिनी—(प्रवेश करके) राजा अपने राष्ट्र की रक्षा करने में असमर्थ है, तब भी उस राजा की रक्षा होनी ही चाहिए। अमात्य, यह कैसी विवशता है! तुम

ध्रुवस्वामिनी : ६९७