पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७२३

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कोमा––पाषाणी! हाँ, राजा! पाषाणी के भीतर भी कितने मधुर स्रोत बहते रहते हैं। उनमें मदिरा नहीं, शीतल जल की धारा बहती है। प्यासों की तृप्ति––

शकराज––किन्तु मुझे तो इस समय स्फूर्ति के लिए एक प्याला मदिरा ही चाहिए।

[कोमा एक छोटा-सा मंच रख देती है और चली जाती है / शकराज मंच पर बैठ जाता है। / खिंगिल का प्रवेश]

कोमा––(स्थिर दृष्टि से देखती हुई) मैं ले आती हूँ। आप बैठिए।

शकराज––कहो जी, क्या समाचार है!

खिंगिल––महाराज! मैंने उन्हें अच्छी तरह समझा दिया कि हम लोगों का अवरोध दृढ़ है। उन्हें दो में से एक करना ही होगा। या तो अपने प्राण दें अन्यथा मेरे सन्धि के नियमों को स्वीकार करें।

शकराज––(उत्सुकता से) तो वे समझ गये?

खिंगिल––दूसरा उपाय ही क्या था। यह छोकड़ा रामगुप्त, समुद्रगुप्त की तरह दिग्विजय करने निकला था। उसे इन बीहड़ पहाड़ी घाटियों का परिचय नहीं मिला था। किन्तु सब बातों को समझ कर वह आपके नियमों को मानने के लिए बाध्य हुआ।

शकराज––(प्रसन्नता से उठकर उसके दोनों हाथ पकड़ लेता है) ऐं, तुम सच कहते हो! मुझे आशा नहीं। क्या मेरा दूसरा प्रस्ताव भी रामगुप्त ने मान लिया?

[स्वर्ण के कलश में मदिरा लेकर कोमा चुपके से आकर पीछे खड़ी हो जाती है]

खिंगिल--हाँ महाराज! उसने माँगे हुए सब उपहारों को देना स्वीकार किया और ध्रुवस्वामिनी भी आपकी सेवा में शीघ्र ही उपस्थित होती है।

[कोमा चौंक उठती है और शकराज प्रसन्नता से खिंगिल के हाथों को झकझोरने लगता है]

शकराज––खिंगिल! तुमने कितना सुन्दर समाचार सुनाया। आज देवपुत्रों की स्वर्गीय आत्माएँ प्रसन्न होंगी। उनकी पराजयों का यह प्रतिशोध है। हम लोग गुप्तों की दृष्टि में जंगली, बर्बर और असभ्य हैं तो फिर मेरी प्रतिहिंसा भी बर्बरता के ही अनुकूल होगी। हाँ, मैंने अपने शूर सामन्तों के लिए स्त्रियाँ भी माँगी थी।

खिगिल––वे भी साथ ही आएँगी।

शकराज––तो फिर सोने की झाँझ वाली नाच का प्रबन्ध करो, इस विजय का उत्सव मनाया जाय। और मेरे सामन्तों को भी शीघ्र बुला लाओ।

ध्रुवस्वामिनी : ७०३