पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

[खिंगिल का प्रस्थान / शकराज अपनी प्रसन्नता में उद्विग्न-सा इधर-उधर टहलने लगता है और कोमा अपना कलश लिये हुए धीरे-धीरे सिंहासन के पास आकर खड़ी हो जाती है / चार सामन्तों का प्रवेश / दूसरी ओर से नर्तकियों का दल आता है / शकराज उनकी ओर ही देखता हुआ सिंहासन पर बैठ जाता है / सामन्त लोग उसके पैरों के नीचे सीढ़ियों पर बैठते हैं / नर्तकियाँ नाचती हुई गाती हैं]

अस्ताचल पर युवती सन्ध्या की खुली अलक घुँघराली है।
लो, मानिक मदिरा की धारा अब बहने लगी निराली है।
भर ली पहाड़ियों ने अपनी झीलों की रत्नमयी प्याली।
झुक चली चूमने वल्लरियों से लिपटी तरु की डाली है।
यह लगा पिघलने मानिनियों का हृदय मृदु-प्रणय-रोष भरा।
वे हँसती हुई दुलार-भरी मधु लहर उठाने वाली है।
भरने निकले हैं प्यार-भरे जोड़े कुंजों की झुरमुट से।
इस मधुर अँधेरे में अब तक क्या इनकी प्याली खाली है।
भर उठीं प्यालियाँ, सुमनों ने सौरभ मकरन्द मिलाया है।
कामिनियों ने अनुराग-भरे अधरों से उन्हें लगा ली है।
वसुधा मदमाती हुई उधर आकाश लगा देखो झुकने।
सब झूम रहे अपने सुख में तूने क्यों बाधा डाली है!

[नर्तकियाँ जाने लगती है]

एक सामंत––श्रीमान! इतनी बड़ी विजय के अवसर पर इस सूखे उत्सव से सन्तोष नहीं होगा, जब कि कलश सामने भरा हुआ रखा है।

शकराज––ठीक है, इन लोगों को केवल कहकर ही नहीं, प्यालियाँ भर कर भी देनी चाहिए।

[सब पीते हैं और नर्तकियाँ एक-एक को सानुरोध पान कराती हैं]

दूसरा सामंत––श्रीमान् की आज्ञा मानने के अतिरिक्त दूसरी गति नहीं। उन्होंने समझ से काम लिया, नहीं तो हम लोगों को इस रात की कालिमा में रक्त की लाली मिलानी पड़ती।

तीसरा सामंत––क्यों बक-बक करते हो? चुप-चाप इस बिना परिश्रम की विजय का आनन्द लो। लड़ना पड़ता तो सारी हेकड़ी भूल जाती।

दूसरा सामंत––(क्रोध से लड़खड़ाता हुआ उठता है) हमसे!

तीसरा सामंत––हाँ जी तुमसे!

दूसरा सामंत––तो फिर आओ तुम्हीं से निपट ले। (सब परस्पर लड़ने की

७०४ : प्रसाद वाङ्मय