पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

चेष्टा करते हैं / शकराज खिंगिल को संकेत करता है / वह उन लोगों को बाहर लिवा जाता है / तूर्यनाद)

शकराज––रात्रि के आगमन की सूचना हो गयी। दुर्ग का द्वार अब शीघ्र ही बन्द होगा। अब तो हृदय अधीर हो रहा है––खिंगिल!

[खिंगिल का पुनः प्रवेश]

खिंगिल––तोरण में शिविकाएँ आ गई हैं।

शकराज––(गर्व से) तब विलम्ब क्यों? उन्हें अभी ले आओ।

खिंगिल––(सविनय) किन्तु रानी की एक प्रार्थना है।

शकराज––क्या?

खिंगिल––वह पहले केवल श्रीमान् से ही सीधे भेंट करना चाहती हैं। उनकी मर्यादा...

शकराज––(ठठा कर हँसते हुए) क्या कहा? मर्यादा! भाग्य ने झुकने के लिए जिन्हें विवश कर दिया है, उन लोगों के मन में मर्यादा का ध्यान और भी अधिक रहता है। यह उनकी दयनीय दशा है।

खिंगिल––वह श्रीमान् की रानी होने के लिए आ रही है।

शकराज––(हँस कर) अच्छा, तुम मध्यस्थ हो न! तुम्हारी बात मान कर मैं उससे एकान्त में ही भेंट करूँगा––जाओ।

[खिंगिल का प्रस्थान]

कोमा––महाराज! मुझे क्या आज्ञा है।

शकराज––(चौंक कर) अरे, तुम अभी यही खड़ी हो? मैं तो जैसे भूल ही गया था। हृदय चञ्चल हो रहा है। मेरे समीप आओ कोमा!

कोमा––नयी रानी के आगमन की प्रसन्नता से?

शकराज––(संभल कर) नयी रानी का आना क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगा कोमा?

कोमा––(निर्विकार भाव से) संसार में बहुत-सी बातें बिना अच्छी हुए भी अच्छी लगती हैं, और बहुत-सी अच्छी बातें बुरी मालुम पड़ती हैं।

शकराज––(झुँझलाकर) तुम तो आचार्य मिहिरदेव की तरह दार्शनिकों की-सी बातें कर रही हो!

कोमा––वे मेरे पिता-तुल्य हैं, उन्हीं की शिक्षा में मैं पली हूँ। हाँ ठीक है, जो बातें राजा को अच्छी लगें, वे ही मुझे भी रुचनी ही चाहिए।

शकराज––(अव्यवस्थित होकर) अच्छा, तुम इतनी अनुभूतिमयी हो, यह मैं आज जान सका।

कोमा––राजा, तुम्हारी स्नेह-सूचनाओं की सहज प्रसन्नता और मधुर आलापों

४५
ध्रुवस्वामिनी : ७०५