पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७२६

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ने जिस दिन मन के नीरस और नीरव शून्य में संगीत की, वसन्त की और मकरन्द की सृष्टि की थी, उसी दिन से मैं अनुभूतिमयी बन गयी हूँ। क्या वह मेरा भ्रम था? कह दो––कह दो कि वह तेरी भूल थी।

[उत्तेजित कोमा सिर उठा कर राजा से आँख मिलाती है]

शकराज––(संकोच से) नहीं कोमा, वह भ्रम नहीं था। मैं सचमुच तुम्हें प्यार करता हूँ।

कोमा––(उसी तरह) तब भी यह बात?

शकराज––(सशंक) कौन-सी बात?

कोमा––वही जो आज होने जा रही है! मेरे राजा! आज तुम एक स्त्री को अपने पति से विच्छिन्न कराकर अपने गर्व की तृप्ति के लिए कैसा अनर्थ कर रहे हो?

शकराज––(हँस कर बात उड़ाते हुए) पागल कोमा! वह मेरी राजनीति का प्रतिशोध है।

कोमा––(दृढ़ता से) किन्तु, राजनीति का प्रतिशोध, क्या एक नारी को कुचले बिना पूरा नहीं हो सकता?

शकराज––जो विषय न समझ में आवे, उस पर विवाद न करो।

कोमा––(खिन्न होकर) मैं क्यों न करूँ। (ठहर कर) किन्तु नहीं, मुझे विवाद करने का अधिकार नहीं। यह मैं समझ गयी।

[कोमा दुखी होकर जाना चाहती है कि दूसरी ओर से मिहिरदेव का प्रवेश, हाथ में लम्बा त्रिशूल घुटने तक परिच्छद और छाती तक सफेद दाढ़ी]

शकराज––(संभ्रम से खड़ा होकर) धर्मपूज्य! मैं वन्दना करता हूँ।

मिहिरदेव––कल्याण हो। (कोमा के सिर पर हाथ रखकर) बेटी! मैं तो तुझको ही देखने चला आया। तू उदास क्यों है?

[शकराज की ओर गूढ़ दृष्टि से देखने लगता है]

शकराज––आचार्य! रामगुप्त का दर्प दलन करने के लिए, मैंने ध्रुवस्वामिनी को उपहार में भेजने की आज्ञा दी थी। आज रामगुप्त की रानी मेरे दुर्ग में आयी है। कोमा को इसमें आपत्ति है।

मिहिरदेव––(गम्भीरता से) ऐसे काम में तो आपत्ति होनी ही चाहिए राजा! स्त्री का सम्मान नष्ट करके तुम जो भयानक अपराध करोगे, उसका फल क्या अच्छा होगा? और भी, यह अपनी भावी पत्नी के प्रति तुम्हारा अत्याचार होगा।

शकराज––(क्षोभ से) भावी पत्नी?

मिहिरदेव––अरे, क्या तुम इस क्षणिक सफलता से प्रमत्त हो जाओगे? क्या

७०६ : प्रसाद वाङ्मय