शकराज––(धूमकेतु को बार-बार देखता हुआ) भयानक! कोमा, मुझे बचाओ!
कोमा––जाती हूँ महाराज! पिताजी मेरी प्रतीक्षा करते होंगे। (जाती है)
[शकराज अपने सिंहासन पर हताश होकर बैठ जाता है]
प्रहरी––(प्रवेश करके) महाराज! ध्रुवस्वामिनी ने पूछा है कि एकांत हो तो आऊँ।
शकराज––हाँ, कह दो कि यहाँ एकांत है। और देखो, यहाँ दूसरा कोई न आने पावे।
[प्रहरी जाता है / शकराज चञ्चल होकर टहलने लगता है / धूमकेतु की ओर दृष्टि जाती है तो भयभीत होकर बैठ जाता है]
शकराज––तो इसका कोई उपाय नहीं? न जाने क्यों मेरा हृदय घबरा रहा है। कोमा को समझा-बुझा कर ले आना चाहिए। (सोच कर) किन्तु इधर ध्रुवस्वामिनी जो आ रही है! तो भी देखूँ, यदि कोमा प्रसन्न हो जाय....(जाता है)
[स्त्री-वेश में चन्द्रगुप्त आगे और पीछे ध्रुवस्वामिनी स्वर्ण-खचित उत्तरीय में सब अंग छिपाये हुए आती है / केवल खुले हुए मुँह पर प्रसन्न चेष्टा दिखाई देती है]
चन्द्रगुप्त––तुम आज कितनी प्रसन्न हो!
ध्रुवस्वामिनी––और तुम क्या नहीं?
चन्द्रगुप्त––मेरे जीवन-निशीथ का ध्रुव-नक्षत्र इस घोर अन्धकार में अपनी स्थिर उज्ज्वलता से चमक रहा है। आज महोत्सव है न?
ध्रुवस्वामिनी––लौट जाओ, इस तुच्छ नारी-जीवन के लिए इतने महान् उत्सर्ग की आवश्यकता नहीं।
चन्द्रगुप्त––देवि! यह तुम्हारा क्षणिक मोह है। मेरी परीक्षा न लो। मेरे शरीर ने चाहे जो रूप धारण किया हो, किन्तु हृदय निश्छल है।
ध्रुवस्वामिनी––अपनी कामना की वस्तु न पाकर यह आत्महत्या जैसा प्रसंग तो नहीं है?
चन्द्रगुप्त––तीखे वचनों से मर्माहत कर के भी आज कोई मुझे इस मृत्यु-पथ से विमुख नहीं कर सकता। मैं केवल अपना कर्तव्य करूँ, इसी में मुझे सुख है।(ध्रुवस्वामिनी संकेत करती है / शकराज का प्रवेश / दोनों चुप हो जाते हैं / वह दोनों को चकित होकर देखता है)
शकराज––मैं किसको रानी समझूँ? रूप का ऐसा तीव्र आलोक! नहीं मैंने कभी नहीं देखा था। इसमें कौन ध्रुवस्वामिनी है?
ध्रुवस्वामिनी––(आगे बढ़कर) यह मैं आ गयी हूँ।
ध्रुवस्वामिनी : ७०९