पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७३१

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चन्द्रगुप्त––वाह रे कहने वाले!

[ध्रुवस्वामिनी मानो चन्द्रगुप्त के आक्रमण से भयभीत हो कर पीछे हटती है और तूर्यानाद करती है / शकराज आश्चर्य से उसे सुनता हुआ सहसा घूम कर चन्द्रगुप्त का हाथ पकड़ लेता है / ध्रुवस्वामिनी झटके से चन्द्रगुप्त का उत्तरीय खींच लेती है और चन्द्रगुप्त हाथ छुड़ा कर शकराज को घेर लेता है]

शकराज––(चकित-सा) ऐ, यह तुम कौन प्रवंचक?

चन्द्रगुप्त––मैं हूँ चन्द्रगुप्त, तुम्हारा काल। मैं अकेला आया हूँ, तुम्हारी वीरता की परीक्षा लेने। सावधान!

[शकराज भी कटार निकाल कर युद्ध के लिए अग्रसर होता है / युद्ध और शकराज की मृत्यु / बाहर दुर्ग में कोलाहल / 'ध्रुवस्वामिनी की जय' का हल्ला मचाते हुए रक्ताक्त कलेवर सामन्त-कुमारों का प्रवेश / ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त को घेर कर समवेत स्वर से 'ध्रुवस्वामिनी की जय हो!']

[पटाक्षेप]


तृतीय अंक

[शक-दुर्ग के भीतर का एक प्रकोष्ठ / तीन मंचो में दो खाली और एक पर ध्रुवस्वामिनी पादपीठ के ऊपर बायें पैर दाहिना पैर रख कर अधरों से उँगली लगाये चिन्ता में निमग्न बैठी है /बाहर कुछ कोलाहल होता है]

सैनिक––(प्रवेश करके) महादेवी की जय हो!

ध्रुवस्वामिनी––(चौंककर) क्या?

सैनिक––विजय का समाचार सुनकर राजाधिराज भी दुर्ग में आ गये हैं। अभी तो वे सैनिकों से बातें कर रहे हैं। उन्होंने पूछा है, महादेवी कहाँ है। आपकी जैसी आज्ञा हो, क्योंकि कुमार ने कहा है....।

ध्रुवस्वामिनी––क्या कहा है? यही न कि मुझसे पूछ कर राजा यहाँ आने पावे? ठीक है, अभी मैं बहुत थकी हूँ। (सैनिक जाने लगता है उसे रोक कर) और सुनो तो! तुमने यह नहीं बताया कि कुमार के घाव अब कैसे हैं?

सैनिक––घाव चिन्ताजनक नहीं है, उन पर पट्टियाँ बँध चुकी हैं। कुमार प्रधान-मण्डप में विश्राम कर रहे हैं।

ध्रुवस्वामिनी––अच्छा जाओ। (सैनिक का प्रस्थान)

ध्रुवस्वामिनी : ७११