पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७३२

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मन्दाकिनी––(सहसा प्रवेश करके) भाभी! बधाई है। (जैसे भूल कर गयी हो) नहीं, नहीं! महादेवी, क्षमा कीजिए।

ध्रुवस्वामिनी––मन्दा! भूल से ही तुमने आज एक प्यारी बात कह दी। उसे क्या लोटा लेना चाहती हो? आह! यदि वह सत्य होती?

[पुरोहित का प्रवेश]

मन्दाकिनी––क्या इसमें भी सन्देह है?

ध्रुवस्वामिनी––मुझे तो सन्देह का इन्द्रजाल ही दिखलाई पड़ रहा है। मैं न तो महादेवी हूँ और न तुम्हारी भाभी.... ‌ (पुरोहित को देखकर चुप रह जाती है)

पुरोहित––(आश्चर्य से इधर-उधर देखता हुआ) तब मैं क्या करूँ?

मन्दाकिनी––क्यों, आपको कुछ कहना है क्या?

पुरोहित––ऐसे उपद्रवों के बाद शान्तिकर्म होना आवश्यक है। इसीलिए मैं स्वस्त्ययन करने आया था; किन्तु आप तो कहती हैं कि मैं महादेवी ही नहीं हूँ।

ध्रुवस्वामिनी––(तीखे स्वर में) पुरोहित जी! मैं राजनीति नहीं जानती; किन्तु इतना समझती हूँ कि जो रानी शत्रु के लिए उपहार में भेज दी जाती है, वह महादेवी की उच्च पदवी से पहले ही वंचित हो गयी होगी।

मन्दाकिनी––किन्तु आप तो भाभी होना भी अस्वीकार करती हैं।

ध्रुवस्वामिनी––भाभी कहने का तुम्हें रोग हो तो कह लो। क्योंकि इन्हीं पुरोहित जी ने उस दिन कुछ मन्त्रों को पढ़ा था। उस दिन के बाद मुझे कभी राजा से सरल सम्भाषण करने का अवसर ही न मिला। हाँ, न जाने मेरे किस अपराध पर सन्दिग्ध-चित्त होकर उन्होंने जब मुझे निर्वासित किया, तभी मैंने उनसे अपने स्त्री होने के अधिकार की रक्षा की भीख माँगी थी। वह भी न मिली और मैं बलि-पशु की तरह, अकरुण आज्ञा की डोरी में बँधी हुई शक-दुर्ग में भेज दी गयी। तब भी तुम मुझे भाभी कहना चाहती हो?

मन्दाकिनी––(सिर झुका कर) यह गर्हित और ग्लानि-जनक प्रसंग है।

पुरोहित––यह मैं क्या सुन रहा हूँ? मुझे तो यह जान कर प्रसन्नता हुई थी कि वीर रमणी की तरह, अपने साहस बल पर महादेवी ने इस दुर्ग पर अधिकार किया है।

ध्रुवस्वामिनी––आप झूठ बोलते हैं।

पुरोहित––(आश्चर्य से) मैं और झूठ!

ध्रुवस्वामिनी––हाँ, आप और झूठ, नही स्वयं आप ही मिथ्या हैं।

पुरोहित––(हँस कर) क्या आप वेदान्त की बात कहती हैं? तब तो संसार मिथ्या है ही।

ध्रुवस्वामिनी––(क्रोध से) संसार मिथ्या है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानती,

७१२ : प्रसाद वाङ्मय