रामगुप्त––ध्रुवस्वामिनी, निर्लज्जता की भी एक सीमा होती है।
ध्रुवस्वामिनी––मेरी निर्लज्जता का दायित्व क्लीव कापुरुष पर है। स्त्री की लज्जा लूटने वाले उस दस्यु के लिए मैं...।
रामगुप्त––(रोक कर) चुप रहो! तुम्हारा पर-पुरुष में अनुरक्त हृदय अत्यन्त कलुषित हो गया है। तुम काल-सर्पिणी-सी स्त्री! ओह, तुम्हे धर्म का तनिक भी भय नहीं। शिखर! इसे भी बन्दी करो।
पुरोहित––ठहरिए! महाराज, ठहरिए! धर्म की ही बात मैं सोच रहा था।
शिखरस्वामी––(क्रोध से) मैं कहता हूँ कि तुम चुप न रहोगे, तो तुम्हारी भी यही दशा होगी।
[सैनिक आगे बढ़ता है]
मन्दाकिनी––(उसे रोक कर) महाराज, पुरुषार्थ का इतना बड़ा प्रहसन! अबला पर ऐसा अत्याचार! यह गुप्त-सम्राट् के लिए शोभा नही देता।
रामगुप्त––(सैनिक से) क्या देखते हो जी।
[सैनिक आगे बढ़ता है और चन्द्रगुप्त आवेश में आकर लौह-शृंखला तोड़ डालता है / सब आश्चर्य और भय से देखते हैं]
चन्द्रगुप्त––मैं भी आर्य समुद्रगुप्त का पुत्र हूँ। और शिखरस्वामी, तुम यह अच्छी तरह जानते हो कि मैं ही उनके द्वारा निर्वाचित युवराज भी हूँ। तुम्हारी नीचता अब असह्य है। तुम अपने राजा को लेकर इस दुर्ग से सकुशल बाहर चले जाओ। यहाँ अब मैं ही शकराज के समस्त अधिकारों का स्वामी हूँ।
रामगुप्त––(भयभीत होकर चारों ओर देखता हुआ) क्या?
ध्रुवस्वामिनी––(चन्द्रगुप्त से) यही तो कुमार!
चन्द्रगुप्त––(सैनिकों से डपट कर) इन सामन्त-कुमारों को मुक्त करो!
[सैनिक वैसा ही करते हैं और शिखरस्वामी के संकेत से रामगुप्त धीरे-धीरे भय से पीछे हटता हुआ बाहर चला जाता है]
शिखरस्वामी––कुमार! इस कलह को मिटाने के लिए हम लोगो को परिषद् का निर्णय माननीय होना चाहिए। मुझे आपके आधिपत्य से कोई विरोध नहीं है, किन्तु सब काम विधान के अनुकूल होना चाहिए। मैं कुल-वृद्धों को और सामन्तों को, जो यहाँ उपस्थित हैं, लिवा लाने जाता हूँ। (प्रस्थान)
[सैनिक लोग और भी मच ले आते हैं और सामन्त-कुमार अपने खड्गों को खींचकर चन्द्रगुप्त के पीछे खड़े हो जाते हैं / ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त परस्पर एक दूसरे को देखते हुए खड़े रहते हैं / परिषद् के साथ रामगुप्त का प्रवेश / सब लोग मंच पर बैठते हैं]
७१८: प्रसाद वाङ्मय