पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७३९

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पुरोहित––कुमार! आसन ग्रहण कीजिए।

चन्द्रगुप्त––मैं अभियुक्त हूँ।

शिखरस्वामी––बीती हुई बातों को भूल जाने में ही भलाई है। भाई-भाई की तरह गले से लग कर गुप्त-कुल का गौरव बढ़ाइए।

चन्द्रगुप्त––अमात्य, तुम गौरव किसको कहते हो? वह है कही? रोग-जर्जर शरीर पर अलंकारों की सजावट, मलिनता और कलुष की ढेरी पर बाहरी कुंकुम-केसर का लेप गौरव नही बढाता। कुटिलता की प्रतिमूर्ति, बोलो। मेरी वाग्दत्ता पत्नी और पिता-द्वारा दिये हुए मेरे सिहासन का अपहरण किसके संकेत से हुआ? और छल से....।

रामगुप्त––यह उन्मत्त प्रलाप बन्द करो। चन्द्रगुप्त! तुम मेरे भाई ही हो न! मैं तुमको क्षमा करता हूँ।

चन्द्रगुप्त––मै उसे माँगता नही और क्षमा देने का अधिकार भी तुम्हारा नही रहा। आज तुम राजा नही हो। तुम्हारे पाप प्रायश्चित्त की पुकार कर रहे है। न्यायपूर्ण निर्णय के लिए प्रतीक्षा करो और अभियुक्त बनकर अपने अपराधों को सुनो।

मन्दाकिनी––(ध्रुवस्वामिनी को आगे खींच कर) यह है गुप्तकुल की वधू।

रामगुप्त–– मन्दा!

मन्दाकिनी––राजा भय, मन्दा का गला नही घोट सकता। तुम लोगों को यदि कुछ भी बुद्धि होती, तो इम अपनी कुल-मर्यादा, नारी को, शत्रु के दुर्ग में यों न भेजते। भगवान् ने स्त्रियो को उत्पन्न करके ही अधिकारो से वंचित नही किया है। किन्तु तुम लोगों की दस्यु-वृत्ति ने उन्हे लूटा है। इस परिषद् मे मेरी प्रार्थना है कि आर्य समुद्रगुप्त का विधान तोड कर जिन लोगो ने राज-किल्विष किया हो उन्हे दण्ड मिलना चाहिए।

शिखरस्वामी––तुम क्या कह रही हो?

मन्दाकिनी––मैं तुम लोगों की नीचता की गाथा सुना रही हूँ। अनार्य! सुन नही सकते? तुम्हारी प्रवञ्चनाओं ने जिस नरक की सृष्टि की है उसका अन्त समीप है। यह साम्राज्य किसका है? आर्य समुद्रगुप्त ने किसे युवराज बनाया था? चन्द्रगुप्त को या इस क्लीव रामगुप्त को? जिसने छल और बल से विवाह करके भी इस नारी को अन्य पुरुष की अनुरागिनी बताकर दण्ड देने के लिए आज्ञा दी है। वही, रामगुप्त,जिसने कापुरुषों की तरह इस स्त्री को शत्रु के दुर्ग मे बिना विरोध किये भेज दिया था, तुम्हारे गुप्त-साम्राज्य का सम्राट् है! और यह ध्रुवस्वामिनी! जिसे कुछ दिनों तक तुम लोगों ने महादेवी कह कर सम्बोधित किया है, वह क्या है? कौन है? और उसका कैसा अस्तित्व है? कही धर्मशास्त्र हो तो उसका मुँह खुलना चाहिए।

पुरोहित––शिखर, मुझे अब भी बोलने दोगे या नहीं। मैं राज्य के सम्बन्ध में

ध्रुवस्वामिनी : ७१९