पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७४०

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कुछ नहीं कहना चाहता। वह तुम्हारी राजनीति जाने। किन्तु इस विवाह के सम्बन्ध में तो मुझे कुछ कहना ही चाहिए।

गुप्तकुल का एक वृद्ध––कहिए देव, आप ही तो धर्मशास्त्र के मुख हैं।

पुरोहित––विवाह की विधि ने देवी ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त को एक भ्रान्तिपूर्ण बन्धन में बाँध दिया है। धर्म का उद्देश्य इस तरह पददलित नहीं किया जा सकता। माता और पिता के प्रमाण के कारण से धर्म-विवाह केवल परस्पर द्वेष से टूट नही सकते; परन्तु यह सम्बन्ध उन प्रमाणों से भी विहीन है। और भी (रामगुप्त को देखकर) यह रामगुप्त मृत और प्रव्रजित तो नहीं; पर गौरव से नष्ट, आचरण से पतित और कर्मों से राजकिल्विषी क्लीव हैं। ऐसी अवस्था में रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी पर कोई अधिकार नहीं।

रामगुप्त––(खड़ा होकर क्रोध से) मूर्ख! तुमको मृत्यु का भय नहीं!

पुरोहित––तनिक भी नहीं। ब्राह्मण केवल धर्म से भयभीत है। अन्य किसी भी शक्ति को वह तुच्छ समझता है। तुम्हारे बधिक मुझे धार्मिक सत्य कहने से रोक नहीं सकते। उन्हें बुलाओ, मैं प्रस्तुत हूँ।

मन्दाकिनी––धन्य हो ब्रह्मदेव!

शिखरस्वामी––किन्तु निर्भीक पुरोहित, तुम क्लीव शब्द का प्रयोग कर रहे हो!

पुरोहित––(हँस कर) राजनीतिक दस्यु! तुम शास्त्रार्थ न करो। क्लीव! श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्लीव किस लिए कहा था? जिसे अपनी स्त्री को दूसरे की अंकगामिनी बनने के लिए भेजने में कुछ संकोच नही, वह क्लीव नहीं तो और क्या है? मैं स्पष्ट कहता हूँ कि धर्म-शास्त्र रामगुप्त से ध्रुवस्वामिनी के मोक्ष की आज्ञा देता है।

परिषद् के सब लोग––अनार्य, पतित और क्लीव रामगुप्त, गुप्तसाम्राज्य के पवित्र राज-सिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं।

रामगुप्त––(सशंक और भयभीत-सा इधर-उधर देखकर) तुम सब पाखण्डी हो, विद्रोही हो। मैं अपने न्यायपूर्ण अधिकार को तुम्हारे-जैसे कुत्तों के भौंकने पर न छोड़ दूँगा।

शिखरस्वामी––किन्तु परिषद् का विचार तो मानना ही होगा।

रामगुप्त––(रोने के स्वर में) शिखर! तुम भी ऐसा कहते हो? नहीं, मैं यह न मानूँगा।

ध्रुवस्वामिनी––रामगृप्त! तुम अभी इस दुर्ग के बाहर जाओ।

रामगुप्त––ऐं! यह परिवर्तन? तो मैं सचमुच क्लीव हूँ क्या?

७२० : प्रसाद वाड़्मय