पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७४५

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[उज्जयिनी में शिप्रा तट पर कुक्कुंटाराम का द्वार | एक भिक्षु सिर झुकाए टहल रहा है | एक उद्विग्न अश्वारोही सैनिक वेग से आकर उसके समीप रुकता है] सैनिक-(रोषपूर्वक) क्या तुम्ही इस कुक्कुटाराम के स्थविर हो ? भिक्षु-(मन्द स्वर में) शान्त हो उपासक । ऐसा अविनय क्यों ? सैनिक - (क्षोभ से) शान्त ! मृत्यु-शीतल शून्यता की व्यवस्था देने वाले वाग्जाल की विज्ञप्ति बहुत हो चुकी । उत्तर दो तुम्ही स्थविर हो या अन्य कोई ? भिक्षु- (अन्तरिक्ष को देखते) यह पिशंग सन्ध्या शून्य का ही विवर्त्त कर रही है। देखो ! न दिन है न रात, दिवापाति का निर्वाण हो रहा है --मानो समग्र विश्व तथागत की पीली संघाटी मे आश्रय ले रहा है.... सनिक-(पैर पटकते) बको मत । भिक्षु-धर्य धरो, अनुद्विग्न हो जाओ, धर्म का पथ प्रशस्त है, सुआख्यात है । मैं तुम्हें आर्य मत्य बताकर शील मे प्रतिष्ठित करूंगा। आओ, यहां निर्वाण का... सैनिक-निर्वाण ! मैं उसमे विश्वास नहीं करता वह भी शून्य है-असत् है- सबसे बडा अन्धकार है। तुम्हे उस दिवापति का निर्वाण दीख रहा है जो आगामी कल अपनी सम्पूर्ण प्रभा से उदित होने वाला है, तथागत की पीली संघाटी की छाया के बाद -आ रहा है निविड़ अन्धकार ! तुम्हारा वह निर्वाण ढूंढ़ लूंगा किसी दूसरे जन्म मे जब जीवन अपनी सार्थकता खो देगा । मालव पुन न्मिवादी है । भिक्षु -- कदाचित् इस पवित्र कुक्कुटाराम के महास्थापर को तुम पूछ रहे थे." सैनिक-(व्यंगपूर्वक) मेरा प्रश्न भी शून्य बन गया ? अभी कदाचित् लगा रखा है (कुक्कुटाराम की ओर इंगित करते)' इस नीहार भरे कुहर मे मनुष्य सामान्य जीवन को भी नही देख पाता। न जाने कब तुम्हारे इस कुक्कुटाराम की प्राचीर गिरेगी और उसमे बन्दिनी मानवता मुक्त होकर अपना कर्तव्य करने के लिए स्वतन्त्र होगी। भिक्षु-(घृणा से) अनार्य ! तुम कितने पाप-मति हो ? सैनिक-भिक्षु ! तुम्हारा पुण्य न जाने कब धोखे में पप बन गया-हां, पुण्य था ! किन्तु अब मानवता को वह किधर ले जा रहा है, इस पर कभी १ आरंभ से यहां तक क्षेपक है । (सं०) अग्निमित्र : ७२५