पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७४७

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? [भिक्षु नेपथ्य की ओर देखकर चुप रहने का संकेत करता है। उल्काधारी सैनिकों और परिचारिकाओं से घिरा हुआ शिविकारूढ़ सम्राट का प्रवेश | युवक झुककर अभिवादन करता हुआ हट जाता है] सम्राट-(भिक्षु को देखकर) भन्ते. मैं वन्दना करता हूँ। भिक्षु-कल्याण लाभ हो। सम्राट-संघ सकुशल है न धर्म-चर्या मे कोई व्याघात तो नही ? भिक्षु--आपके यशस्वी शासन मे संघ सब प्रकार से सुखी होकर धर्माचरण कर रहा है। सम्राट-यह प्रसन्नता की बात है। मालूम होता है कि आप वायु सेवन करके लौट रहे है। भिक्षु-नही, भिक्षणियो की मै प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वे टहलकर आती ही होगी। सम्राट- अच्छा उन कुमारियो का क्या हुआ जिन्हे मैने सघ मे भिजवा दिया था। युवतियों खड्ग लिए एक ध्वज की परिक्रमा करे-यह मुझे अच्छा नहीं लगा। मन अक किया न भिक्षु-वह तो सम्राट् ने धर्मानुकूल ही किया। भूली हुई अधार्मिक क्रियाओ का पुनः प्रचार करने में आपकी मालव सेना ने न जाने क्या गुप्त रहस्य रखा है ? सम्राट-(जैसे सचेत होकर) ठीक कहा आपने | इन्द्रध्वज का तो बहुत दिनो से नाम भी नही सुना गया था । उहं, होगा कुछ । भिक्षु--महाराज, मुझे तो बडा सन्देह है। सम्राट् -(भय से इन्द्रध्वज को देखता हुआ) बलमित्र ! कुमारामात्य सेनापति पुष्यमित्र को यही बुला लो। [बलमित्र जाता है | सम्राट के संकेत से शिविका रख दी जाती है] सम्राट-स्थविर | आप भी इस शिला खंड पर बैठ जाय मै सेनापति की प्रतीक्षा वरूंगा। [भिक्षु शिला खंड पर बैठ जाता है और भिक्षुणियों का दल उसी तरह लौटता है] सम्राट्-(कुतूहल से देखता हुआ) सुन्दर ! सघ ने बहुत-सी धार्मिक क्रियाओ मे रोचक परिवर्तन किये हैं । भिक्षु-भगवान् तथागत ने समयानुकूल नियमो मे परिवर्तन करने की इसीलिए आज्ञा दी है । (भिक्षुणियां समीप आतो हैं) सम्राट्-आर्य, क्या ये सब इन्द्र-कुमारियाँ हैं ? अग्निमित्र : ७२७