पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७४८

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भिक्षु-- नही, इनमें केवल एक ही है। और सब तो संघ के कड़े नियमों का पालन करने में अस्वस्थ हो गयी हैं। सम्राट् -जो स्त्रियां अवरोध के नियमों का न पालन करे उनके लिए संघ ही उत्तम आश्रय है। इरावती-(आगे बढ़ कर) सम्राट् ! यह अन्याय है। मुझे अपनी इच्छा के विरुद्ध भिक्षुणी बना देना राजशक्ति का परिहास है । सम्राट-(उसे सस्पृह देखता हुआ) तुम अन्याय का नाम न लो। [वेग से सैनिक का प्रवेश] सैनिक- मम्राट् की जय हो ! अन्याय का नाम न लेने से वह छिप जाय, ऐसी बात नही। वह पीड़ित के प्रतिबिम्ब में भयकर मूतिमान होकर सबकी आँखों के सामने नाचता है । सम्राट-(रोष से) तुम कौन हो ? दुविनीत । वाचाल ! सैनिक -मालव सेना का एक नायक । सैनिक-(इरावती से) इरे, तुम सम्राट से अपने कुल मे लौटने की आज्ञा ? मांगो। सम्राट-नही, जो स्त्रियां अवरोध मे न रह सके, उनके लिए संघ ही उत्तम आश्रय है। नियमों का पालन करना राष्ट्र की प्रजा के लिए उतना ही आवश्यक है जितना श्वास-प्रश्वास लेना। सैनिक-देव, जीवन के स्वतन्त्र विकास को रोकने वाले नियम राष्ट्र की उन्नति को भी रोकते है। भारतीय विचारको ने इसे अच्छी तरह समझा है । स्वर्गीय विश्व-विश्रुत महाराज धर्माशोक ने श्रमण और ब्राह्मण के धर्माचरण मे बाधा न डालते हुए जो साधारण संशोधन प्रचलित किये थे, उनका अब अतिक्रमण किया जा रहा है। मालवों ने राज सिंहासन की जिस निष्ठा के साथ सेवा की है, उसकी यो अवहेलना न होनी चाहिए। इस मालव कुमारी को संन्यास-बन्धन से मुक्त करने की आज्ञा दीजिए। सम्राट्-(सरोष) घृष्ट युवक ! तू मुझे शिक्षा देना चाहता है ? (भिक्षुणियों की ओर देख कर) आर्य स्थविर ! इन्हे संघाराम मे जाने की अनुमति दीजिए। (भिक्षु के संकेत करने पर भिक्षुणियाँ जाने लगती हैं) सैनिक-ठहरो इरा ! (इरावती रुक जाती है) सम्राट-ऐ ! [सेनापति पुष्यमित्र और बलमित्र का प्रवेश] पुष्यमित्र- राजाधिराज की जय हो ! (बलमित्र से कड़क कर) इन दोनों युवक और युवती को बंदी करो, और शीघ्र यहां से ले जाओ। ७२८:प्रसाद वाङ्मय