पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[पुष्यमित्र के इस आकस्मिक आचरण से सम्राट कुछ चकित और कुछ विमूढ़-सा हो जाता है । सैनिक और इरावती का बलमित्र के साथ प्रस्थान] भिक्षु-देवं ! संघ की सीमा मे आज यह पहला अवसर है कि एक भिक्षुणी बन्दिनी बनायी जाय । संघ-महास्थविर की आज्ञा ही यहां ऐसे विषयों में प्रधान होती रही। सेनापति-(विनम्र होकर) आर्य ! मुझे तो यह नहीं मालूम था कि राज- शक्ति से ऊपर भी किसी की शक्ति माननीय है, चाहे वह संघ ही क्यों न हो। सम्राट्-(कुछ प्रसन्न-सा होकर) आर्य ! इस विवाद को मैं स्वयं महास्थविर से जाकर समझ लूंगा। अभी तो जो सेनापति ने किया वही ठीक है। सेनापति -मैं अनुगृहीत हुआ महाराज ! किन्तु मेरी पहले की प्रार्थना के अनुमार क्या इन्द्रध्वज महोत्सव को श्रीमान् न कृतार्थ करेंगे? आज उत्सव का अन्तिम समारोह है । मालव सैनिक रात्रि की रणचर्या का कृत्रिम प्रदर्शन करेंगे। सम्राट्-(विरक्त होकर सन्दिग्ध भाव से) मुझ तुम्हारा इन्द्रध्वज कुछ समझ मे नही आता । यह क्या उपद्रव है ? पुभित्र-देव, आर्य जाति के महावीर इन्द्र की पताका की पूजा राष्ट्र में गोर्य और तेज की वृद्धि के लिए आवश्यक है। क्षुि-सेनापति ! हिंमा को उत्तेजना देना धर्म-विरुद्ध है। सम्राट-(कुछ चंचल-सा होकर) सेनापति ! धार्मिक विधानों में हस्तक्षेप करने का तुम्हारा अभिप्राय तो नही होगा ? सेनापति-कदापि नही महाराज ! आर्य स्थविर की यह अहिंसा एक प्रतिक्रिया है। राष्ट्र मे जैसे नृशंसता स्पृहणीय नही वैसे ही कायरता भी अभीष्ट न होगी। उत्तर-पश्चिम मे यवन मिलिन्द तथा पूर्व-दक्षिण में जैन खारवेल अपने बल को बढ़ा रहे है। किसी भी क्षण मौर्य-साम्राज्य को निगल जाने के लिए ये दोनों शक्तियां अग्रसर हो सकती है। सम्राट् -सेनापति ! हम लोग भविष्य की चिन्ता में प्रायः वर्तमान को भी नष्ट कर देते है । आक्रमण की वैमी सम्भावना नही जैमी आप सुना रहे हैं । तो भी मैं चाहता हूं कि यह इन्द्रध्वज शीघ्र हटा दिया जाये । पुष्यमित्र-(सिर झुकाकर) उत्तम होता कि सम्राट् अपनी आज्ञा पर फिर विचार करते । मालवों की दुर्द्धष वीर सेना। सम्राट्-दुर्द्धर्ष ! क्या कहते हो सेनापति ! मालवों का नाम मैं इतनी बार नही सुनना चाहता । मै विनीत और दुर्द्ध दोनों का नियामक हूँ। मैं सम्राट् हूँ। [पुष्यमित्र सिर झुका लेता है और भिक्षु के साथ सम्राट् सपरिचर खुले फाटक से भीतर जाता है] अग्निमित्र : ७२९