पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७५०

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पुष्यमित्र-इधर ? या उधर ? यह दुर्बल, धर्म के आडम्बर में महा-विलासी नाममात्र का सम्राट् ! क्षत्रिय दार्शनिक और संन्यासी भिक्षु हो रहे हैं। इसलिए ब्राह्मण पुष्यमित्र ने शस्त्र ग्रहण करके आज तक मगध राष्ट्र की रक्षा की है, किन्तु भीतर उपप्लव और बाहर से आक्रमण ! .पुष्यमित्र ! अब तुम क्या करोगे ? और अग्निमित्र, जिसे मैं इतने दिनों तक बचाता रहा, आज उसकी भेंट सम्राट् से हो ही गयी। कैसी विचित्र परिस्थिति है ? उस उच्छृखल युवक को मैं विदिशा से आने नहीं देता था । क्या करूं ? (व्यग्र होकर टहलने लगता है / नैष्ठिक ब्रह्मचारी के वेश में पतंजलि का प्रवेश) पुष्यमित्र-नमस्कार, इस समय आपकी मुझे अत्यन्त आवश्यकता थी। पतंजलि-(शिला खंड पर बैठते हुए) मेरी आवश्यकता ? आश्चर्य ! पुष्यमित्र-मैं इस समय अत्यन्त उद्विग्न हूँ पतंजलि-(सहज भाव से) होना ही चाहिए । किन्तु इस जड़ता से आच्छन्न, निर्मम उदासीनता में किसी तरह की बौद्धिक उत्तेजना में पड़े हुए सेनापति को देखकर मुझे तो प्रसन्नता ही हो रही है। पुष्यमित्र-मैं क्या करूं? पतंजलि -यही तो संसार का सबसे बड़ा प्रश्न है-'मैं क्या करूं' ? इस पर विचार और कर्म के पहले मनुष्य अपना शरीर, मन और वाणी शुद्ध कर ले।' जो मन से कायर, शरीर से शिथिल होने पर भी वचन का वीर है, उससे कुछ नहीं होता। विश्व शक्ति-तरंग है। वह तरल अग्नि जो इसके अन्तरतम में द्रुत-वेग से चक्कर लगा रही है, विषाद के कलुष से पीड़ित अपने को कुछ न समझने वाले प्राणी के द्वारा अनुकरण करने की वस्तु नहीं । पुष्यमित्र-आर्य ! तब क्या इस दुःखवाद, श्रद्धाहीन निराशा की ओर ले जाने- वाले अनात्मवाद के निर्वाण का अन्धकार अनन्त है ? आर्य जाति कहां जा रही है ? औरं पतंजलि-जहां उसे जाना है, चिति-शक्ति अपने अभाव पक्ष की लीला देख रही है । तुम क्षात्रधर्मा ब्राह्मण अभी भी दुविधा में पड़े हो। जीवन का विकास इस दुःखपूर्ण बुद्धिवाद के बन्दीगृह में अवरुद्ध है। उसे आनन्द पथ पर ले चलने की क्षमता तुममें अन्तनिहित है । दुःखवाद की निद्रा छोड़कर आनन्द की जागृति के लिए मानवता चंचल हो रही है। यह सब उसी के क्षुद्र उपसर्ग हैं, तुम, मंगलपूर्ण सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह के पंच-कृत्य करने में कुशल चिरानन्दमयी १. भगवान् पतंजलि के लिए कहा है-'मनो वाक्काय दोषाणां हर्षेऽहिपतये नमः' । वे शेष के अवतार कहे जाते हैं। ७३० : प्रसाद वाङ्मय