पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आत्मसत्ता में विश्वास करो। तुम्हारे कर्म विश्व के अनुकूल होंगे। वही करोगे जो होना चाहिए । [पुष्यमित्र कुछ समय के लिए सिर झुकाकर प्रकृतिस्थ हो जाता है | पतञ्जलि का प्रस्थान | नेपथ्य से कोलाहल करते हुए मालव सैनिकों का प्रवेश | पुष्यमित्र चौंककर खड़ा हो जाता है] पुष्यमित्र -क्या है ? बलमित्र--आर्य ! इस अपमान का प्रतिशोध लिये बिना हम लोग शान्त नही होंगे। कुक्कुटागम शान्त तपस्वी भिक्षुओं के निवास योग्य अब नहीं रहा। अब यह अपने नाम को सार्थक करेगा । और उसमें कुक्कुट ही रहेंगे। पुष्यमित्र-तो क्या तुम लोग उपद्रव करने पर तुले हुए हो ? एक मालव सैनिक--मालव कुल की वीर बालिकाएं इस तरह पकड़ कर धर्म के नाम पर कारागार में बन्द कर दी जायें और हम लोग देखते रहें। यह नहीं हो सकता। दसरा सैनिक-धर्म कहाँ है ? जनता को क्या वास्तव में संघ वही दे रहा है जो उससे आशा थी? तीसरा संनिक-ठीक है सेनापति । मिठाई न मिले तो मीठी बात तो मिलनी ही चाहिए । हम पर अत्याचार भी हो और ऊपर से डाँट-फटकार । पुष्यमित्र-- (रोष से) मूर्यो ! सम्राट भी इस समय संघाराम में ही हैं, लौट जाओ। मै इसकी व्यवस्था कर दूंगा। बलमित्र-आपकी व्यवस्था तो कुछ ही क्षण पहले मैने देखी है। अभी-अभी आपने राज-शक्ति को प्रसन्न करने के लिए अन्यायपूर्वक अपने पुत्र को बन्दी करने की आज्ञा दी है। तीसरा सैनिक-और राजशक्ति संघ को प्रसन्न करने में तत्पर है। कहा भी है कि 'संघे शक्तिः कलौ युगे'। पुष्यमित्र-तुम अपनी परिहासप्रियता को रोको। (बलमित्र से) सुनते हो बलमित्र ! बृहद्रथ केवल सम्राट् ही नहीं, अपितु वह मेरी एकान्त राजनिष्ठा का प्रतिनिधि है। सुनो, यह पुष्यमित्र नहीं कह रहा है किन्तु सेनापति की आज्ञा है, मेरे प्रिय सैनिको, लौट जाओ। बलमित्र-पूज्यपाद, आप मेरे पितृव्य हैं किन्तु सेनापति नही। जो सैनिक की मर्यादा सुरक्षित नही रख सका ऐसे सेनापति की अधीनता में मंनिक भी नहीं। [नेपथ्य से-'महानायक अग्निमित्र की जय ।' पुष्यमित्र चौंककर देखने लगता है | इरावती और कुछ सैनिकों के साथ अग्निमित्र का प्रवेश] अग्निमित्र : ७३१ -