पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कीमल किसलय अधर मधुर से प्रेम से, अब सूखे कांटे गड़ते हैं, हा ! वही ! कानन की हरियाली ही सब भूख को तुरत मिटाती थी देकर फल-फूल ही वहीं न छाया भी मिलती है धूप में। कहो प्रिये, अब फिर क्या करना चाहिए ? तारिणि हाय ! क्या कहे प्राणनाथ इस भूमि में, अब तो रहना दुष्कर-सा है हो गया। (नेपथ्य से रोहित) "घबराओ मत अजीगत । मैं आ गया।" (प्रवेश करके) रोहित-कहिये क्या है दुःख आपको जो अभी इतने व्याकुल होकर यों किस बात को सोच रहे थे। क्या पशुओं का दुःख है ? अजीगत-तुम तो जैसे सत्य बात हो जानते और दिखाई देते राजकुमार-से, स्वर्णखचित यह शिरस्राण है कह रहा वर्म बना बहुमूल्य बताता विभव को किन्तु सकोगे समझ भूख को और विकल पीड़ित अकाल से प्राण को जीवन की आकुल आशा त्रस्त हो एक-एक दाने आश्रय खोजती वह वीभत्स पिशाच खा लिया चाहता जब अपना ही मांस । अधीर विडम्बना हँसती हो इन दुर्वल शब्दों पर, अजी तब भी तुम कुछ दोगे मुझे सहायता ? रोहित-एक बात यदि तुम भी मेरी मान लो। अजीगत-मानेगा कैमी निष्टुर बात हो । रोहित-सौ दूंगा मैं तुम्हें जो दो मुझे एक पुत्र अपना, उस पर सव सत्त्व हो मेरा, उमको चाहे जो कुछ मैं करूँ। तारिणी-दूंगी नही कनिष्ठ-पुत्र को मैं कभी। अजीगत-और ज्येष्ठ को मैं भी दे मकता नही के दुःख जब का गाय ७८: प्रसाद वाङ्मय