पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रोहित-तो मध्यम सुत दे देना स्वीकार है- वलि देने के लिए एक नरमेध में? (ऋषि-पत्नी मुंह ढाप कर भीतर चली जाती है और अजीगत कुछ सोचने लगता हैं) अजीगत-हां हां ! मुझको सब बातें स्वीकार हैं। चलो मुझे पहले गायें दे दो अभी । रोहित-अच्छा, उसको यहाँ बुलाओ देख हम भी; मध्यम पुत्र तुम्हारा है कहाँ ? (नेपथ्य की ओर मुख करके-) अजीगत-शुन.शेफ ! ओ शुनःशेफ ! ! आ जा यहाँ । (मार खाने के भय से, खेल छोड़कर शुन.शेफ भागता हुआ आता है) शुनःशेफ-क्या है बाबा, क्यो हो मुझे बुला रहे ? मैंने कोई भी न किया है दोष, जो बुलाते मुझे मारने के लिए। अजीगत-चुप रह ओ मूर्ख ! बोलना मत, यहाँ खड़ा रह, (रोहित से)-यही मध्यम मेरा पुत्र है। रोहित 1-अच्छा है। बस चलो गभी तुम साथ में, राज्य-केन्द्र में चलते है हम भी अभी, उनी स्थान में मूल्य तुम्हे मिल जायगा, और इसे हम ले जाते हैं संग ही। (शुनःशेफ से) चलो चलो जी माथ हमारे शीघ्र हो । मेरे हाथ तुम्हारा विक्रय हो चुका। (शुन गेफ का अजीगत की ओर सकरुण देखते हुए रोहित के माथ प्रस्थान) आप चतुर्थ दृश्य (महाराज हरिश्चन्द्र सिंहासनासीन । शुनःशेफ को साथ लिये हुए रोहित का प्रवेश) रोहित-हे नरेन्द्र हे पिता पुत्र यह रोहित मेवा मे आ गया। विनम्र हो आपका करणालय : ७९