पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/९६

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रक्षा करता अभिवादन है, अब कर दीजिये क्षमा इसे । हूँ पशु लेकर आया यहाँ । हरिश्चन्द्र-रे पुत्राधम ! तूने आज्ञा भंग की मेरी, अब तू योग्य नही इस राज्य के रोहित-देव ! दिया जाता बलि में जो मैं अभी तो क्या पाता राज्य ! न ऐमा कीजिये। सुनिये, की है धर्म की नहीं आप होते अनुगामी निरय पुत्र न रहता, तो क्या हो । कौन फिर देता पिण्ड तिलोदक । यह भी समझिये कुल के पुण्य-पुरोहित देव वसिष्ठ से। (वसिष्ठ का प्रवेश, राजा अभ्युत्थान देता है) वसिष्ठ-राजन् ! विजयी रहो। सुनी सब बात है, यह तो अच्छा कार्य कुंवर ने है किया। यदि पशु का है पिता; दे दिया सत्य ही उसने बलि के लिए इसे, तो ठीक है। राजपुत्र के बदले इसको दीजिये वलि; तब देव प्रसन्न तुरत हो जायेंगे। और आप भी सत्य-सत्य हो जायेगे। (शुनःशेफ से) क्यों जी ! तुमको दिया पिता ने क्या इन्हें मूल्य लिया है ? शुनःशेफ-सत्य प्रभो ! सब सत्य है। वसिष्ठ-फिर क्या तुमको यह सब स्वीकार है ? शुनःशेफ-जो कुछ होगा भाग्य और निज कर्म मे । वसिष्ठ-अच्छा फिर सब यज्ञ-कार्य भी ठीक हो और शीघ्र करना ही इसको उचित है। हरिश्चन्द्र-जो आज्ञा हो, मैं करता हूँ सब अभी। (सबका प्रस्थान) ८०: प्रसाद वाङ्मय