पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१२७

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हिन्दी में नाटक का स्थान "काव्येषु नाटकं रम्यं" क्यों ? इसलिए कि उसमें सब ललित सुकुमार कलाओं का समन्वय है । प्रचलित अर्थ में काव्य से नाटक मे कुछ विशेषता है। फिर भी वह (नाटक) काव्य का एक अवान्तर भेद है। काव्य एक कला है और ललित सुकुमार कलाओं मे प्रधान कला है, तब यह मानना होगा कि नाटक का कला से सम्बन्ध ही नहीं परन्तु वह कला का बिकसित रूप है। हृदय को अनुभूति कराने के लिए, कला के दो द्वार है; कान और आँख । इस काव्य की अनुभूति भी 'दृश्य और श्रव्य' दोनों प्रकार मे होती है। ऊपर कह आए है कि काव्य प्रधान कला है, वह क्यों ? यद्यपि सब कलाएं अपनी सीमा , माने अधिकार क्षेत्र मे पूर्ण होती है, किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर इनमे भी तारतम्य हो सकता है। जिस प्रकार से आँख और कान इन दो इन्द्रियों के द्वारा कला का उपभोग होता है, उसी प्रकार से कला के दो भेद भी होंगे, मूर्त और अमूर्त । इनमे एक भेद और भी है उसे शिल्प कहते है जिसे स्थापत्य और मूर्ति निर्माण कला भी कह सकेगे। यह मूर्त (शिल्प) कला का स्थूल रूप है जिसकी उपलब्धि आँखों से होती है। चित्र कला उसी का उच्च और सूक्ष्म रूप है। यद्यपि इनका विषय मानसिक भी है तब भी उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध मूर्त वा अधिभूत से है। किसी भावना की अभिव्यक्ति के लिए मूर्ति की अपेक्षा है। इसलिए कि उसमें अनन्त की उपलब्धि की आशा कम होती है। उनका क्षेत्र संकुचित है । संगीत केवल कान से सम्बन्ध रखता है और उसमे अनन्त का आनन्द भी मिलता है। किन्तु उसका सब काल मे या कुछ विशेष समय तक उपभोग नही किया जा सकता। तानसेन की मनोहर तान अब कही सुनाई नही पड़ती। इधर काव्य पुस्तकों के रूप में मूर्त भी है और हृदयंगम हो जाने पर अमूर्त भी। कालिदास की शकुन्तला अपनी पूर्णता से आज भी 'तदेव रूपं रमणीयतायाः' का दर्शन कराती है, और आगे भी कराती रहेगी। अस्तु, काव्य, देश और काल के साथ ही अनन्त है। उसका क्षेत्र विस्तृत है। वह मानस और बाह्य प्रकृति के दोनो रूपो का स्वागत कर सकता है : और वस्तु सापेक्ष न होकर अध्यात्म का भी अधिकारी है। समस्त कलाओं मे काव्य कला इसीलिए अधिक आदर की अधिकारिणी है। अशिक्षित मानव स्वभाव, प्रकृति का 'कच्चा माल' है : जिसे वह समाज के हिन्दी में नाटक का स्थान : २७