पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१४७

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ब्रह्म वेदममृतं पुरस्तात् ब्रह्म पश्चाद्दक्षिणतश्चोत्तरेण । अधश्वोध्वं च प्रमृत ब्रह्म वेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ॥ मुण्डकोप० २ आगमों में भी शिव को शक्ति-विग्रही मानते है। और यही पक्की अद्वैत-भावना कही गई है; अर्थात्- पुरुष का शरीर प्रकृति है। कदाचित् अर्द्धनारीश्वर की संश्लिष्ट-कल्पना का मूल भी यही दार्शनिक विवेचन है। संभवत. पिछले काल में मनुष्य की सत्ता को पूर्ण मानने की प्रेरणा ही भारतीय अवतारवाद की जननी है। क्ला के ईमाई आलोचक हेवेल ने संभवत: इसीलिए कहा है कि-The Hindu draws no distinction between what is sacred and profane पूर्व, भारत से पश्चिम का यह मौलिक मतभेद है। यही कारण है कि पश्चिम स्वर्गीय साम्राज्य की घोषणा करते हुए भी अधिकतर भौतिक या Materialistic बना हुआ है और भारत मूत्ति-पूजा और पंच-महायज्ञो के त्रिया-काड मे भी अध्यात्म-भाग से अनुप्राणित है । यही कारण है कि ग्रीस द्वारा प्रचलित पश्चिमी सौंदर्यानुभूति बाह्य को, मूर्त को विशेषता देकर उसकी सीमा मे ही उसे पूर्ण बनाने की चेष्टा करती है और भारतीय विचारधार। ज्ञानात्मक होने के कारण मूर्त और अमूर्न का भेद हटाते हुए बाह्य और आभ्यंतर का एकीकरण करने का प्रयत्न करती है। ऊपर कहा जा चुका है कि सौदर्य-बोध मे पाश्चात्य विवेचकों के मतानुसार मूर्त और अमूर्त-भेद संबंधी कल्पना विवेचन की रीढ बन रही है। जब यह अमूर्त के साथ सौदर्य-शास्त्र का संबंध ठहराती है, तो दुर्बलता मे ग्रस्त होने के कारण अपने को स्पष्ट नही कर पाती। इसका कारण यही है कि वे सद्भावात्मक ज्ञानमय प्रतीको को अमूर्त मौदर्य कहकर घोपित करते है, जो सौदर्य के द्वारा ही विवेचन किये जाने पर केवल प्रेय तक पहुंच पाते है । श्रेय, साम-कल्याण-कल्पना अधूरी रह जाती है। सत्य की उपलब्धि के लिए ज्ञान की साधना आरंभ होती है। स्वाध्याय बुद्धि का यज्ञ है। कहा भी है-सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च--स्वाध्याय प्रवचन में सत्य का अन्वेषण करो। स्वाध्याय के द्वारा मानव सत् को प्राप्त होता है। हमारे सब बौद्धिक व्यापारो का सत्य की प्राप्ति के लिए सतत उद्योग होता रहता है। वह सत्य प्राकृतिक विभूतियों में, जो परिवर्तनशील होने के कारण अनृत नाम से पुकारी जाती है, ओत-प्रोत है। कुछ लोग कह सकते है कि कवि से हम सत्य की आशा न करके केवल सहृदयता ही पा सकते है। किंतु सत्य केवल १+१=२ मे ही नही सीमित है । अनृत को प्राय बढ़ाकर देखने से सत् लघु कर दिया गया है। किंतु सत्य विराट् है । उसे सहृदयता द्वारा ही हम सर्वत्र ओत-प्रोत देख सकते है। उस मत्य के दो लक्षण बताये गये हैं-श्रेय और प्रेय । इसलिए सत्य की अभिव्यक्ति हमारे काव्य और कला:४७