पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१७५

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शृंगार का परम उत्कर्ष परकीया में मानने का यही दार्शनिक कारण है -जीव और ईश की भिन्नता। हां, इस लक्षण में धर्म का उल्लंघन करने का भी संकेत है। विवेकवादी भागवत धर्म ने जब आगमों के अनुकरण में आनन्द की योजना अपने संप्रदाय में की, तो उसमें इस प्रेमा-भक्ति के कारण श्रुति-परंपरा के धार्मिक बन्धनों को तोड़ने का भी प्रयोग आरम्भ हुआ। उनके लिए परमतत्त्व की प्राप्ति सांसारिक परम्परा को छोड़ने से ही हो सकती थी। भागवत का वह प्रसिद्ध श्लोक इसके लिए प्रकाश-स्तम्भ बना आमामहो चरणरेणुजुषामहं स्याम् वृदावने किमपि गुल्मलतोषधीनाम् । यं दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुंदपदवी श्रुतिभिर्विमृग्याम् ॥ यह आर्यपथ छोड़ने की भावना स्पष्ट ही श्रुति-विरोध में थी। आनन्द की योजना करने जा कर विवेकवाद के लिए दूसरा न तो उपाय था और न दार्शनिक समर्थन ही था। उन्होंने स्वीकार किया कि मंसार में प्रचलित आर्य-सिद्धांत सामान्य लोक-आनन्द तत्व मे परे, वह परम वस्तु है, जिमके लिए गोलोक में लास्य-लीला की योजना की गई; किन्तु समग्र विश्व के साथ तादात्म्य वाली समरसता और आगमों के स्पंद-शास्त्र के तांडवपूर्ण विश्व-नृत्य का पूर्ण भाव उसमें न था। इन लोगों के द्वारा जब रसों की दार्शनिक व्याख्या हुई, तब उसे प्रेम-मूलक रहस्य में ही परिणत किया गया और यह रहस्य गोप्य भी माना गया। 'उज्ज्वल नीलमणि' की टीका में एक जगह स्पष्ट कहा गया है-'अयमुज्ज्वलनीलमणिरेतन्मूल्यमजानयोऽनादरशंकया गोप्य एवेति'। भारतेंदुजी ने अपनी चंद्रावली नाटिका में इसका संकेत किया है। इस रागा- त्मिका भक्ति के विकास में हास्य, करुण, वीभत्स इत्यादि प्राचीन रस गौण हो गये और दास्य, सख्य और वात्सल्य आदि नये रसों की सृष्टि हुई। माधुर्य के नेतृत्व में द्वैत-भावना से परिपुष्ट दास्य आदि रस प्रमुख बने । आनन्द की भावना इन आधुनिक रसों में विशृंखल ही रही। हिंदी के आरम्भ में श्रव्य काव्यों की प्रचुरता थी। उनमें भी रम की धार। अपने मूल उद्गम आनन्द से अलग होकर चिरविरहोन्मुख प्रेम के स्रोत में वही । यह बाढ़ वेगवती रही, किंतु उसमें रस की पूर्णता नहीं थी। तात्त्विक और व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से आत्मा की रस-अनुभूति एकांगी-सी बन गयी। मनोभावों या चित्तवृत्तियों का और उनके सब स्वरूपों का नाट्य-रसों में आगमानुकूल व्याख्या से समन्वय हो गया था। अहम् की सब भावों में, सब अनुभूतियों में पूर्णता मान ली गयी थी। वह बात पिछले काल के रस-विवेचकों के द्वारा विशृंखल रस: ७५