पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१९९

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है। जिनको लेकर श्रव्यू-काव्य का विस्तार किया गया है, वे दस अंग नाट्याश्रयभूत हैं । अलंकार के मूल चार हैं-उपमा, रूपक, दीपक और यमक । इन्हीं आरम्भिक अलंकारों को लेकर आलंकारिकों ने सैकड़ों अलंकार बनाये । काव्यगुण, समता, समाधि, ओज, माधुर्य आदि की भी उद्भावना इन्ही लोगों ने की थी। नायिकाएं जिनसे पिछले काल का साहित्य भरा पड़ा है, नाटकोपयोगी वस्तु है । वृत्तियाँ कोशिकी, भारती आदि भी नाटयानुकूल भाषा-शैली के विश्लेषण हैं। और भी सूक्ष्म, देश-सम्बन्धी भारत की मानवीय प्रवृत्तियों की आवन्तिकी, दाक्षिणात्या, पांचाली और मागधी की भी नाटयों में आवश्यकता बतायी गयी है। इस तरह प्राचीन नाटय-साहित्य में उन सब साहित्य-अंगों का मूल है, जिनके आधार पर आलंकारिक साहित्य की आलोचना विस्तार करती है । प्राचीन अद्वैत भावापन्न नाटय-रमो को भी अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न इसी काल में हुआ। जीवन की एकागी दृष्टि अधिक सचेष्ट थी। सन्तों को साहित्य में स्थान नहीं मिला। वे लाल बुझक्कड़ समाज के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुए। नाचने, गाने-बजाने वाले, नटों, कुशीलवों से उनका रस छीनकर भाँडो और मुक्तक के कवियों ने निगार की विजय का डंका बजाया। कबीर ने कुछ रहस्यवाद का लोकोपयोगी अनुकरण आरम्भ किया था कि विवेक हुंकार कर उठा। महाकवि तुलसीदास ने आदर्श, विवेक और अधिकारी-भेद के आधार पर युगवाणी रामायण की रचना की। उनका प्रश्न और उत्तर एक सन्देश के रूप में हुआ-'अम प्रभु अछत हृदय अधिकारी । सकल जीव जग दीन दुखारी।' कहना न होगा कि दुःखों की अनुभूति से, बुद्धिवाद ने एक बाणकारी महान् शक्ति का अवतरण किया। सबके हृदयों में उसका अस्तित्व स्वीकार किया गया; परन्तु परिणाम वही हुआः जो होना चाहिए । कभी-कभी राम के ही दो भेद बनाकर द्वंद्व खडा कर दिया जाता। कबीर के निर्गुण राम के विरुद्ध साकार, सक्रिय और समर्थ राम की अवतारणा तुलसीदास ने की। मर्यादा की सीमा राम और लीला पुरुषोत्तम कृष्ण का भी संघर्ष कम न रहा। ये दार्शनिक प्रतीक विवेकवादी ही थे, यद्यपि कृष्ण मे प्रेम और आनन्द की मात्रा भी मिली थी। बीच-बीच में जो उलझने आनन्द और विवेक की साहित्य वाली धारा में पड़ीं, उनका क्रमोल्लेख न करके मैं यही कहना चाहता हूं कि काव्यधारा 'मानव में राम है-या लोकातीत परम शक्ति है' इसी के विवेचन मे लगी रही। मानव ईश्वर से भिन्न नही है, यह बोध, यह रसानुभूति विवृत नही हो सकी। किसी सीमा तक राधा और कृष्ण की स्थापना मे स्वात्मानन्द का ही विज्ञापन, द्वैत दार्शनिकता के कारण, परोक्ष अनुभूति के रूप में होता रहा । श्रीकृष्ण में नर्तक- आरंभिक पाठय काव्य : ९९