पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२२०

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ही सम्बन्ध है जैसा कि ग्रीकों ने मेरु-विजय, निशा-प्रदेश और 'हाइपर बोरियन्स' (Hyperborrians) के प्रसंग में लिखा है। इसी मेरु के सम्बन्ध में असुरों और देवों के युद्ध का वर्णन है । ग्रीकों ने भी इसी प्रदेश को देखकर कहा था कि पिता दानवेश (Dainesus) ने एक बार स्वर्ग विजय किया था, अब दूसरी बार सिकन्दर ने किया। यह कोहमोर वैदिक त्रिककुद और पौराणिक त्रिकूट का एक शृंग है। त्रिकूट के ये तीनों उच्च शृग पेशावर से ही दिखाई देते हैं। यही पर स्वर्ग-सुख का आनन्द लेने के लिए सिकन्दर ने दस दिन बड़ा भारी महोत्सव मनाया था। उक्त प्रदेश की निसर्ग-रमणीयता का उल्लेख करके ग्रोकों ने बड़े उल्लास से कहा था कि सचमुच यही पृथ्वी का स्वर्ग है। इस मेरु और स्वर्ग के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थकारों का उल्लेख करते हुए मेगास्थनीज़ ने लिखा है कि निशय-देश और मेरु भारतवर्ष की सीमा के अन्तर्गत माने जाते है और भारत की यही सीमा सिकन्दर के आक्रमण के समय भी मानी जाती थी। यह तो थी मूलभूमि; पर इसके पूर्ण विस्तृत रूप के लिए पिछले काल में और भी दो नाम मिलते हैं-आर्यावर्त और भारत । यद्यपि इसके संबन्ध में पुराणों मे कितने ही विवरण दिये गये है, किंतु अधिक संगत यही मालूम होता है कि वैदिक भरत-जाति की आवास-भूमि होने के कारण ही इसे भारतभूमि कहने लगे थे। समयों का इतना विशेष अंतर है कि इस नाम के साथ काल का निर्देश नही किया जा सकता। भृगुप्रोक्त मनुस्मृति मे उम काल के आर्यावर्त की सीमा वर्तमान भारत से संकुचित ही दिखायी देती है । हिमालय और विध्याचल के बीच की ही भूमि को आर्यावर्त मानते थे। संभवतः दक्षिण के प्रायद्वीप से भारत का उस काल में सम्बन्ध नही था, और उधर निषध पर्वत माला हिमालय का ही परिवार मानी जाती थी। यहाँ हिमालय साधारण नाम है। स्वर्ग और मेरु का निर्देश करने के अनन्तर हमे यह भी देखना पड़ेगा कि आर्यावर्त का वैदिक विस्तार कितना था। जिन भौगोलिक नदियो और पर्वतो का वर्णन वैदिक साहित्य मे मिलता है उनसे अधिकृत भूमि को वैदिक काल का आर्यावर्त मान लेने में कोई आपत्ति नही हो सकती। अविनाशचन्द्रदास ने वैदिक काल के इस देश को 'सप्तसिधु' नाम से अभिहित किया है। अधिक ध्यान देने से तो यह मालूम पड़ता है कि उक्त मेरु प्रदेश और तत्संलग्न सप्तसिंधु में आर्यो की धनी बस्ती थी। कितु, उतनी ही वैदिक सीमा में आर्य-विस्तार को संकुचित रखने के लिए वैदिक काल के आर्यावर्त अन्य भौगोलिक प्रमाण वारण करते हैं। दास ने अपने 'ऋग्वेदिक इंडिया' में बड़ी विद्वत्ता से भूगर्भ आदि शास्त्र के आधार पर सिद्ध किया है कि प्राचीन सप्तसिधु चारों ओर समुद्रों से घिरा था। उन्होंने उसी प्रदेश को आर्यभूमि माना है-जैसा कि आचार्य सत्यव्रत सामश्रमी ने अपने पांडित्य- १२० : प्रसाद वाङ्मय