पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२५४

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आर्य-सभ्यता के इतिहास का वह प्रारम्भिक अध्याय है, जब इन्द्र ने आत्मवाद का प्रचार किया, जब असुरों पर विजय प्राप्त की और आर्यावर्त मे जब साम्राज्य- स्थापन किया। 'त्रिसप्तक प्रदेश' की बसनेवाली भिन्न-भिन्न आर्य सस्थाओ का, जो अपना स्वतत्र शासन करती थी और आपस मे लडती थी, सम्राट् बनकर इद्र ने एक मे व्यहन किया और वैदिक काल की भरत, तृत्सु, पुरु आदि वीर मण्डलियाँ एक 'इंद्रध्वज' की छाया मे अपनी उन्नति करने लगी। ससार मे इद्र पहले सम्राट थे। पिछले काल मे असुरो ने उन प्राचीन घटनाओ के सस्मरण से अपना पुराण चाहे विकृत रूप मे बनाया हो परन्तु है वह सत्य इतिहास, आर्यों का ही नही अपितु मनुष्यता का, जब मनुष्य मे आकाशी देवता पर से आस्था हटकर आत्मसत्ता का विश्वास उत्पन्न हुआ। समस्त १. वैदिक वादमय और अन्य देशो की अनुश्रुतियो के आधार पर इस निबध मे प्राचीन आर्यवास और आर्या के परवर्ती उपनिवेशो के मन्दर्भ मे उस मूल वैचारिक द्वद्व का विवेचन हुआ है जो देवासुर-सग्राम से दाशराज्ञ-युद्ध पर्यन्त एक लम्बे सघर्ष मे परिणत हुआ। वह द्वद्व मानव-समाज के प्राय परवर्ती द्वद्वो का प्रजापति बना और चेतना के धरातल पर विभाजन की जो रेखा उसने खीच दी, उसी को खीचते-तानते मानव-समाज वर्गा में बंटता और द्वद्व-बहुल होता गया। उम वैचारिक संघर्ष के आकाशी युद्धो के रूपक मे- आज प्राप्त उल्लेखो से विस्मित होना ठीक नही। अयुनो वर्ष व्यापी उस बहुस्तरीय सघर्ष एव उमके की ऐतिहासिक विवेचना अनेक दृष्टियो से महत्वपूर्ण है। पुरानी मान्यताओ को दृढता से पकड रखने वाले–असुर कहे जाने वाले-आर्यो के पश्चिमाभिमुखी अभियान के क्रम मे स्थापित हुए उनके नये उपनिवेशो का जो परिशोध इम विवेचना के द्वारा प्रस्तुत हुआ है उसके महारे अनेक उपलब्धियां मभावित है। परवर्ती शोधोपलब्धियां इस निबन्ध की स्थापना को पुष्ट करती जा रही है और अब, एक आक्रामक जाति के रूप मे आर्यों के यहां आते और भारत को उपनिवेश बन्गने की मिथ्या धारणा निरस्तप्राय है। डा० केटिल ने कालाहारी अधित्यका (दक्षिणी अफ्रीका) के अपने शोध-मन्दर्भ में जो यह कहा है कि-'इस विचित्र जंगनी प्रदेश मे मनुष्य उत्पन्न हुआ' उपका यह अभिप्राय नही हो सकेगा कि समग्र पृथ्वी पर फैली मानव जाति का वही अग्रजन्मा है। पीत जाति की भूमि चीन मे भी प्रागैतिहासिक नर-ककाल पाये गये हैं । मध्यचीन के आन्ह्व ई प्रात का नर कंकाल दो लाख वर्ष पुराना और पीकिंग- १५४ : प्रसाद वाङ्मय