पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

इसी अभिप्राय से ऋचा-निर्दिष्ट 'कृणुध्वं विश्वामार्यम्' की नावना लेकर आर्य-मानवों के अन्य-क्षेत्रीय संचार हुए। उन विभिन्न देशों में बसने वाली जातियों के आनुपूर्वी इतिहास, उनकी सामाजिक परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं का अतीत एकायन-प्राय है। अवश्य अपनी इयत्ताओं में उन्होंने अपने पृथक् व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित विया है किंतु भिन्न देशीय वातावरण के सस्कागे की परते उधरग पर मौलिक आर्य-स्फुतिग स्पष्ट हो जाते है और वैदिक संकल्प 'कृणुध्व विश्वमार्यम्' के अनेक चरणो की सिद्धि अपनी साकारता में प्रत्यक्ष होती है । इस निबन्ध में विवेचित त्रिसप्तक और उसकी नदियो की भौगोलिक अवस्थिति के प्रसंग मे -बिहिश्तून, नकशेरुस्तम और पर्सिपोलिग मे प्राप्त ईसा पूर्व ५२२-४८६ के दारयवहुप तथा क्षयार्ष (साखामनीष-हखामनी) राजाओं द्वारा उत्कीर्ण कराए गए स्तम्भ लेख अवलोक्य है जहां मरयू (स रेवः) और सरस्वती (हरहती) के उल्लेख है अर्थात प्रागैतिहासक काल के ये वैदिक नदी-नाम इतिहास के ज्ञात काल के आरभ तन, जाग्रत रहे (अवलोक्य-मेलेक्ट) इन्स्क्रिप्शन्स भाग १, कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा १९४२ मे प्रकाशित) -रत्नशंकर प्रसाद १६० :पमाद वाङ्मय