पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२६८

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मेघदूत के प्रमग मे श्री राय के कथन-किन्तु मेघदूत मे तो वे प्रेम का सयत अनुराग दिखा सकते थे। मगर उन्होने वह नहीं दिखाया।' इस पर टिप्पणी है-"संयत अनुराग दक्षिण नायक की प्रेयसी का कितना बड़ा साक्ष्य है यह आप नहीं समझ सके।" पूर्व और पश्विम के प्रेम और काम सम्बन्धी विचार पर श्री राय की मीमासा के उत्तर मे पृष्ठ ७१ की टिप्पणी है - "Shelly Etc उस देश में हुए जहाँ सम्बन्ध और काम अभिन्न थे। पुरुष भी प्रेम का प्रतिदान करने को उतना ही बाध्य था जितनी स्त्री।" श्री द्विजेन्द्र जहाँ शकुन्तला के व्यवहार को किसी तापसी के अयोग्य समझकर कुत्सा करते है ( ठ-८३) उस पर टिप्पणी है "जो चरित्र मानव समाज की गति के अनुरूप होगा वही शिक्षा दे सकेगा-शकुन्तला ओर दुष्यन्त सा पतन और उत्थान सामाजिकता का आधार स्तम्भ है।" सतेज नहीं हुआ-चटकीला नहीं रहा-इससे चमत्कार नहीं है क्यों? पृष्ठ-१० वी यह टिप्पणी, सीना-निर्वासन के प्रसग मे है। वात्मीकि और भवभूति की सीता के विश्लेपण मे है। श्री द्विजेन्द्र ने भवभूति की मीना के विषय मे कहा है "राम के दिए हा निर्वामन-दएड को मोता ने किम भाव म ग्रहण पिया यह भवभूति ने बिल्कुल ही नहीं दिखलाया ।" उम टिप्पणी के अन्त का 'क्यो' अर्थर्गाभत है कदाचित यहां वक्रोक्ति भी है। इसी क्रम में पाठ ५१ पर जहाँ श्री द्विजेन्द्र ने शकुन्तला को एक सजीव नारी और मीता का पाषाणी प्रतिमा कहा, शकुन्तला को एक चरित्र और सीता को एक धारणा मानते कहा है कि 'निर्वासन सत्य भी उनके अटल प्रेम को वेध नही मगा, निष्ठता उम प्रेम को डिगा नही सकी। किन्तु उस प्रेम ने कोई कार्य नहीं किया, वह प्रेम ज्योत्सना की नग्ह गतिहीन है, सूरजमुखी की तरह पर- मुखापेक्षी है, विरह की नरहाण हे और हसी की तरह सुन्दर है। भवभूति ने नाटक का विषय चना चग्ग । किन्तु वह विषय इतना उच्च है कि कवि की कल्पना वहाँ तक नहीं पहुंचती।' इस प्रमग मे एक छोटी सी टिप्पणी है-"क्योंकि अन्तविरोध नही है।" वह हो भी नही मकता क्योकि मीता मे अद्वयी भाव की सिद्धि है, वह गममयी है। मीता की मी मात्विक सम्वर्धना के बाद भी सीता के प्रेम ने कोई कार्य नहीं दिया यह कहार श्री दिजेन्द्र राम के समूचे कृतित्व को नकार देते है । इमका यही कारण है कि व सामान्य नाटयभूमि के और उस कौशल के अभ्यस्त है-अन्नविरोध जिमका प्राण है- और, उमी का वहाँ अभाव है। उत्तर रामचरित के पात्रो को गिनाते श्री द्विजेन्द्र ने किसी मे नाटयोपयोगी चरित्र-विकास का अभाव बताया है। वहां टिप्पणी है (पृष्ठ-१०२)-"सीता ही १६८ प्रसाद वाड्मय