पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२७९

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श्री कुलदेवतायै नमः हमारी वंश परम्परा अपने मूल स्थान कन्नौज से जिम कारण वशात् उन्मूलित हुई उसकी ऐतिहासिक वस्तुता उस 'प्रायश्चित्त' नाटक मे क्षिन है जो १९१४ मे इन्दु के जनवरी अंक मे आदिन. प्रकाशित हुआ था। इस नाटय रचना के पीछे लेखकीय मनोभूमि में कुछ सास्कारिक रहम्य निहिन-सा लगता है : क्योकि कोई आसन्नभूत हेतु प्रत्यक्ष नही। यदि वैसी दशा का चित्रण अभीष्ट रहा तो कालकाचार्य- वथा भी सुना रही जहाँ गर्दभिल्ल मे प्रतिशोध लने मे मुनि ने शको को बुलाया और उम अहिसा-प्रेमी ने मातृभूमि पर हिमा का प्रकाण्ड अनुष्ठान फिरण। इसलिए कन्नौज मे वंशविस्थापन की धनीभूत पोड। यदि इस नाटक की कारणभूमि मानी जाय तो असंगत नः । गंगा और यमुना की धाराओ के मध्य की भूमि अन्तर्वेद पदवाच्य है। इसके राजनगर-कन्नौज को महोदय भी कहा गया है। संस्कृत साहित्य मे 'महोदय सुन्दरीणा' कहकर इसी की अन्त परिकाओ का उल्लेख मिलता है। गगग सम्राट यवनों को परास्त कर अश्वमेध कर चुके थे, तत्पश्चात पाँच-छः शतियो बाद उत्तर गुप्त काल मे हूण उत्तरापथ मे झाँकने लगे थे। उस परवर्ती काल मे राजशक्ति साकेत के माथ-साथ कान्यकुब्ज मे केन्द्रित होने लगी थी क्योकि यह मगध का गोपुर था। इसी कान्यकुब्ज पर आधिपत्य के लिए गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकट और पाल सभी उत्सुक रहा करते थे और यहां का राजा भारत-सम्राट कहा जाता था (अवलोक्य- टाड राजस्थान)। जयचन्द को यहाँ के अन्तिम अधिपति को--परास्त कर गोरी ने इसी महोदय मे जसा आतंक फैलाया उमसे जनता मामूहिक पलायन के लिए विवश हो गई-एक जातीय निष्क्रमण हुआ। फलस्वरूप आसाम और मध्यप्रदेश तक कन्नौज मूल के विभिन्न वर्णो के हिन्दू आज भी पाये जाते है। मध्य-युग अर्थात् ई० ६००-१२०० किवा हर्ष से जयचन्द तक कन्नौज ने उत्तरीय भारत में कुसुमपुरी (पाटलिपुत्र) का स्थान ले रखा था। संस्कृति और साहित्य, कला एव शिल्प सभी की यह उत्कर्ष-भूमि बनी थी-जो उस यवन-आंधी मे बिखर गई। यही से हमारे वंश-मूल के पुरखे धर्म और प्रतिष्ठा सँजोते जाह्नवी के जल-मार्ग से पूर्व की ओर बढ़े। उन्हें सुरक्षित व्यवसाय की भूमि चाहती थी जहां-वह गन्ना सुलभ रहे जो मल-स्थान कन्नौज मे भी उनका जीवोपाय रहा। श्री कुलदेवताय नमः : १७९