पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३१९

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. का था-इसे स्मरण करने के लिए हम उमके उपभोग की वस्तुए, जहां वे रहते थे, उनकी सुरक्षा करते है। तो मैं गमझती हूं प्रसाद जी ने जितना काम किया है उसके अनुसार इस देश में उनके उपयुक्त एक स्मारक निश्चित रूप से होना चाहिए और हिन्दी के नाटकों के तो वे जन्मदाता है। अभी तक उमके आगे नहीं बढ़ा जा सका इसलिए एक ऐमी रंगशाला भी होनी चाहिए जहा आप उनके नाटकों के अभिनय का प्रबन्ध कर सकें, देख सके। उन्होंने नाटक इसीलिए लिसे कि आपकी प्राचीन सारी संस्कृति आपके सामने आ जाए उसकी त्राटा भो का जाय उमसे गमाधान योजने की दिशा मे भी आप प्रयत्नशील हो । हमारे यहाँ विश्वविद्यालयों म भी उनकी कृतियों के विशेष अध्ययन का प्रबन्ध होना हिए। विदेश मे हर विश्वविद्यालय में ऐसे कवि के लिए 'चेयर' होती है। हमारे विश्वविद्यालया मे तो बहुत कम पढानेवाले हैं, आपको आश्चर्य होगा, मैं किसी अपमान सम्मान के लिए नहीं कहती हूँ, परन्तु पाधारणतया कामायनी को पढ़ानेवाले व्यक्ति नही मिलते है। चारों ओर एक प्रकार की भ्रान्ति है कि कामायनी इतनी क्लिष्ट है इतनी कठिन है और न जाने कितने दर्शन उनमें उन्होंने कर दिये है अर्थात् उनको कुछ नही मिला तो गारे दर्शनो का निचोड उन्होंने इसमे एकत्र कर दिया है-महाकवि बनन के लिए । ऐसी कल्पना ही व्यर्थ है। कामायनी तो वही-'तुमुल कोलाहल कलह मे में हृदय की बात रे मन" - आपके हृदय की बात नही है तो कोई बात नहीं है । आज आपके साथ मैं अपने मान्य अग्रज प्रमाद को शत-शत प्रणाम देती हूँ। उनकी स्मृति तो निरन्तर नवीन है और जब तक ये इश नही, मै समझती हूं कि आनेवाली सव पीढ़ियां उन्हें अपना मंगी ही पायेंगी और हम प्रयत्न करे कि हम उनके उत्तराधिकार को सम्हाल सकें। हीरक जयन्ती वाले इस व्याख्यान के अनन्तर १९८७ के अप्रैन मे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने जब प्रसाद मन्दिर में कामायनी अर्द्धशती समारोह आयोजित किया और आग्रह किया कि मैं महादेवी जी को उसकी अध्यक्षता के लिए बुलाऊँ तब एक बाध्यता वश मैंने उन्हें औपचारिक पत्र भेजा। उनकी शारीरिक दशा मुझे ज्ञात थी किन्तु लोगों के सन्तोषार्थ लिखना पड़ा। उसके उत्तर में उनकी जो पंक्तियां आईं वे भी उसी मूल बिन्दु को रेखा विस्तार दे रही हैं - इसलिए आगे उद्धृत है । (रत्नशंकर प्रसाद) संस्मरण पर्व : १५