पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रसादजी -मैथिलीशरण गुप्त चालीस-बयालीस वर्ष हुए, मैं काशी गया था। एक सभ्रान्त कुटुम्व के अतिषि के रूप में यह मेरी पहली दूर की यात्रा थी। हां, दूर थी। इसके पूर्व में अपने सम्बन्धियों के यहां आता-जाता था। परन्तु उस आने-जाने की सीमा दस-वीस कोस से अधिक न होती थी। बचपन में अयोध्या, काशी, प्रयाग और चित्रकूट की तीर्थ यात्राएं अपने गुरुजनों के साथ में कर चुका था। परन्तु किसी के अतिथि के रूप में नहीं। राय कृष्णदासजी मेरे आतिथेय थे । उन्होंने बड़े स्नेह से मुझे अपने यहां ठहराया था। स्वर्गीय वार्हस्पत्यजी से मुझे कुछ काम था और उन दिनों वे काशी में ही थे। उन्हीं दिनों स्वामी सत्यदेवजी अमेरिका से शिक्षा प्राप्त करके लौटे थे और देश मे घूम-घूमकर व्याख्यान दे रहे थे। इसी क्रम में काशी आये थे। नागरी प्रचारिणी सभा में उनका भाषण था। भाई कृष्णदास मुझे भी वहाँ ले गये । स्वामी सत्यदेवजी के लेख सरस्वती में छपा करते थे और मैं उन्हें चाव से पढ़ा करता था। उनका भाषण भी वैसा ही प्रभावशील था। प्रसादजी भी सभा में आये थे और पहले-पहल वही मैंने उनके दर्शन किये । भाई कृष्णदास की उनकी घनिष्ठता थी। उन्होंने ही मुझे उनसे मिलाया। उनके व्यवहार में बड़ी शिष्टता दिखायी थी। मैंने समझा, मेरी रचनाओं के कारण ही प्रसादजी इतने सम्मानपूर्वक मुझसे मिल रहे हैं। परन्तु वह मेरी भूल थी। आगे चलकर मुझे पता चला वे मुझे कवि नहीं, पद्यकार मात्र मानते हैं, भले ही पद्यकार के पहले प्रतिष्ठित शब्द और जोड़ देते हों, इससे अधिक नहीं। एक कविता संग्रह में, जिसमें तथाकथित छायावादी कवियों की रचनाएं थी, मेरी भी दो-तीन कृतियां रख दी गई थीं। यह वात उन्हें ठीक नहीं लगी। संग्रहकार सोच में पड़ गये। मैने उनसे कहा- मेरी रचनाएँ न रहने से मेरी कोई हानि नहीं, प्रसादजी सन्तुष्ट हो जायेंगे, यह लाभ है । इसलिए उन्हें छोड़ देना चाहिए। परस्पर स्नेह की वृद्धि हो जाने पर सम्मवतः मेरी रचनाओं के सम्बन्ध में भी उनके विचारों में परिवर्तन हो गया था। इसके पूर्व उन्होंने मेरी एक ही कृति को प्रशंसात्मक चर्चा की थी। वह थी 'केशों की कथा' । २८: प्रसाद वाङ्मय