पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३४०

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में इसके अतिरिक्त और क्या कर सकता था कि कवि-सम्मेलन में सम्मिलित न होऊँ। मैंने यही किया। पीछे प्रसादजी ने मुझे बताया कि कवि-सम्मेलन में लोगों ने मेरे और तुम्हारे लिए बड़ा कोलाहल मचाया । तुम क्यों नहीं गये ? यही प्रश्न में उनसे न कर सका। मैंने क्षुब्ध होकर कहा-पागल हुए हो। प्रसादजी हंस गये और उनकी आंखें चमक उठीं। हम दोनों प्रदर्शिनी देखने चले गये। वहाँ एक महिला लेखिका मिल गयी। बोली-कहाँ घूम रहे है ! चलिए देखने की वस्तुएँ मैं दिखाऊं, यह कहकर वे एक ऐसी दूकान पर ले गयी जहां स्त्रियों के व्यवहार की अनेक वस्तुएँ थी। हंसकर उन्होंने कहा-घर जाने के पहले जो लेना हो यहां ले लीजिए। प्रसादजी ने भी वैसी ही हंसी मकर कहा-यहाँ तो आप ही ले सकती हैं। लखनऊ से मैं उन्ही के साथ काशी गया। मार्ग में उन्होंने 'कामायनी' के कुछ अंश स्वयं मुझे सुनाये । डिब्बे में वे, उनके एक मित्र और मैं, यही तीन जन थे।' उस दिन का आनन्द मैं नही भूल सकता। उस बार भारतेन्दु भवन में डॉ० मोतीचन्द्र के साथ हम लोगों ने मिलकर अन्तिम बार भोजन किया। प्रसादजी के व्यायाम, आहार-विहार और पौरुष की बातें सुनकर सचमुच कोतूहल होता था। मनों बादाम खाने से सुना है, उन्हें अन्त मे भयानक प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा। बादामों का विष धीरे-धीरे उनके शरीर में व्याप्त होता रहा और अन्त मे घातक रोग के रूप में प्रकट हुआ। अनेक प्रकार की चिकित्सा हुई। पीछे उन्होंने होमियोपैथिक चिकित्सा का आश्रय लिया। चिकित्सक श्री राजेन्द्र नारायण शर्मा उनके मित्र थे। उनकी चिकित्सा पर उन्हें विश्वास भी था। अन्य डाक्टरो की राय थी कि उन्हें पहाड पर जाना चाहिए। मै यह नहीं जानता कि अर्थाभाव उसमें बाधक हुआ। यही जान पड़ता है; ये जीवन से निराश हो गये थे और अन्त में काशी नही छोडना चाहते थे। उनके शरीर की दशा देखकर मैं अपने आंसू न रोक सका। उन्ही दिनों राजर्षि टंडन काशी आये। मुझे साथ लेकर वे प्रसादजी को देखने गये। प्रसादजी खाट से लग गये थे और अस्थिचर्म ही उनमें शेष रह गये थे। ऐसा लगता था मानो शैय्या पर एक चादर ही पड़ी है और कुछ १. स्व० रामानन्द मिश्र और मैं तथा बीच में उतरने वाले एक शीया वृद्ध भी थे। (सं.) २. भारतेन्दु परिवार में श्री नारायण चन्द्र का तिलकोत्सव २८ जनवरी १९३७ को रहा वही से पूज्य पिताश्री ज्वरग्रस्त होकर आए। सं०) ३. चिकित्सक डा० हूबदार सिंह रहे, उनके सहकारी डॉ. राजेन्द्रनारायण शर्मा पूज्य पिताश्री के अन्तेवासी भी है। अन्य कोई चिकित्सा उन्होंने स्वीकार नही किया। (सं०) ३६:प्रसाद वाङ्मय