पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३५७

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हसी फूट पड़ी। "ब आई बारी पान तम्बाकू की। मगही पान और बनारस की सुर्ती, वह भी प्रसादजी की उन उंगलियो द्वारा जिन्होने उनके अमर काव्य की रसधारा बहाई और बहाती रही। एक घडी बातचीत सगीत के बारे मे हुई । वह इसके भी बडे प्रेमी थे। फिर गुप्तजी और राय साहव किसी लाम मे थोडी देर के लिए चले गये। हम दोनो अकेले रह गये । अब गम्भीरता के साथ बाते हुई । उन्होने पूछा - 'देश के किस भाग और समय के किस काल के इतिहाम का अध्ययन कर ?' ? वैसे तो मैं भारत के प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीन इतिहास का भी विद्यार्थी रहा हूँ, परन्तु इन दिनो रुचि बुन्देलखण्ड की ओर अधिक है'-मैने बतलाया। 'क्षेत्र कुछ सीमित-सा है न 'जी हाँ शायद आप ठीक कह रहे है, परन्तु एक कहावत चली आ रही है। इस क्षेत्र के दिस्ताने सम्बन्ध मे-' 'वह क्या 'वह है', इत चम्बल उत नर्मदा, इत जमुना उत 'टोम' वह हँस पडे और बोले-आप ठीक कहते है, क्षेत्र काफी विस्तृत हे और उसका इतिहास भी गौरवमय है । समय कौन-सा चुन रहे है । 'महारानी लक्ष्मीबाई के अर्वाचीन काल से लेकर पीछे हटते हुए चन्देलो के काल तक भटकता ही रहता हूँ और पीछे की राम जाने । वे बहुत प्रसन्न हुए। 'पहिले कौन सा ?' 'अभी तय नही कर पाया हूँ'-इसके उपरान्त मेने उनकी ऐतिहासिक रुचि के सम्बन्ध मे प्रश्न किये। प्रसादजी की रुचि भारतीय इतिहास के अत्यन्त प्राचीन काल से लेकर सम्राट श्री हर्ष के काल तक बहुत ही उत्साहपूर्ण थी। कब क्या लिखेगे यह भी निश्चय प्राय था। इतिहास की शोध और उसके माधन उन्हे काशी मे सुलभ थे, यह सब उन्होने बतलाया । अन्त मे बात इस प्रकार समाप्त हुई। 'बोलचाल की भाषा, रीति-रिवाज, रहन-सहन इत्यादि भिन्न-भिन्न क्षेत्रो के भिन्न है, परन्तु हमारी संस्कृति की अखिल भारतीयता अखण्ड और अक्षुण्ण रही है । पश्चिम के अधिक सम्पर्क में आने के कारण हो, अथवा शताब्दियो की उथल-पुथल और आपसी लड़ाइयो के कारण हो, इन दिनो वह सस्कृति उतनी ऊपर नही सस्मरण पर्व : ५३