पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३८२

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अग्रज' प्रसाद जी -परिपूर्णानन्द वर्मा उम्र में प्रसादजी मुझसे १८ वर्ष थे अतएव यह कहना तो धृष्टता होगी कि वे मेरे मित्र थे। यद्यपि प्रसाद जी की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि चाहे दस दिन की मुलाकात हो या दस बरस की, कोई यह नही महसूस कर सकता कि वह उनसे अपरिचित हैं या वे उनसे कम परिचित हैं। जितनी जल्दी खुले दिल से आत्मीयता वे पैदा कर देते थे, वह बहुत कम में मिलती है। सौभाग्य से मुझे बहुत बड़े बड़े लोगों के साथ का अवसर मिला है। मुसलमानों में तुरंत आत्मीय बन जानेवालों में नवाब अहमद सईद खां छतारी, जो ब्रिटिश शासन काल में प्रथम भारतीय गवर्नर रह चुके थे, उनमें यह गुण पाया था, हिन्दुओं में श्री श्रीप्रकाश जी तथा साहित्य महारथियों में प्रसाद जी में ही ऐसी निराली प्रकृति मैंने पायी। मैं केवल अपने अनुभव की बात कर रहा हूँ। नवाब छतारी जब एकदम राजनीति तथा प्रदेश के मसलों से अलग होकर अलीगढ़ में रहते थे लगभग २५ वर्ष बाद उनसे मिलने अलीगढ़ गया -ऐमा लगा कि रोज की मुलाकात हो, उम्र में अन्तर होते हुए भी ऐसा लगा जैसे जिगरी दोस्त से मिल रहे हों। श्री प्रकाश जी तो एक दिन में ही मोह लेते थे। पुराने महान साहित्यकारों जो उच्चतम चोटी पर पहुंच गये थे, श्री प्रेमचन्द जी तथा प्रसाद जी, उम्र में बड़ा अन्तर होने पर भी मेरी बड़ी घनिष्टता थी। पर प्रेमचन्द जी मेरे बहुत नजदीकी रिश्तेदार थे। उनसे प्रगाढ़ परिचय स्वाभाविक था। पर प्रमाद जी से पहली ही भेंट में लगा जैसे पुराने साथी से मिल रहे हों। उन दिनों, सम्भवत: १९२२-२३ में हम लोगों की जो मण्डली उमड़ पड़ी थी वेचन पाण्डेय 'उग्र' विनोद शंकर व्यास, जनार्दन झा 'द्विज' तथा शान्ति प्रिय द्विवेदी की थी--शान्तिप्रिय का अमली नाम मुच्छन था। वह मेरे घर में ही परिवार के सदस्यों की तरह रहता था। आपस में मारपीट भी होती थी। इसी स्थिति पर मझले भाई श्री अन्नपूर्णानन्द जी ने एक कविता लिख डाली जिसकी अब एक ही पंक्ति याद है : 'मुच्छन वपुरो को कर धोती विहीन' वह ७८ :प्रसाद वाङ्मय