पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३८६

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कि शिवरानी जी मुर्दा उठा लेने देंगी। प्रसादजी आगे बढ़े। भाभी ने उपटकर "प्रसादजी, आप कवि हो सकते हैं-स्त्री का हृदय नहीं जान सकते" यह महान वाक्य, एक पत्नी के मुंह से पति शव पर दहकती आग, मनोविज्ञान की यह महान पहेली किसे न विचलित कर देती। प्रसादजी रोकर वहां से हटे । मैं ही सामने पड़ा-कंधे गले से बोले- "परिपूर्णा, तुम्ही 'कुछ करो ।" मैंने भाभी की डांट, फटकार, चीख सुनी पर मुर्दा खीच लाया। मैं क्या जानता था कि उस समय प्रसादजी के भी पीछे खड़ी मृत्यु मुस्करा रही है। मैंने पचासों प्रकार के देशभक्ति के तथा सैनिक गान सुने है, आन्दोलन के दिनों में कुछ गाया भी है पर आज के विपत्ति ग्रस्त काल मे सबसे प्रखर सन्देश “चन्द्रगुप्त" में प्रसादजी का ही है -ठण्डा से ठण्डा खून भी उबल पड़ेगा। हिमाद्रि तुग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती- . स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारत अभयं वीर पुत्र हो दृढ़प्रतिज्ञ सोच ले प्रशस्त पुण्य पन्थ है बढे चलो बढे चले असंख्व कीर्ति रश्मियों विकीर्ण दिव्य दाह र्स सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी अराति सैन्य सिन्धु मे सुबाड़वाग्नि से जल प्रवीर हो जयी बनो बढ़े चलो-वढे चलो वाङ्मय