पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

केवल कहानी रह गई! -कृष्णदेव प्रसाद गौड़ (बेढब बनारसी) मार्च का महीना, दस बजे दिन का समय । मेरे एक मित्र आये और बोले- चलो प्रसादजी से तुम्हें मिला लाऊँ ! अंग्रेजी में एम० ए० करके मैं अध्यापक बन चुका था और कई वर्षों तक लाला भगवानदीन के चरणों में बैठकर क्लासिकल हिन्दी पढ़ता चला आ रहा था। नागरी- प्रचारिणी सभा में अकसर जाता, जहाँ शुक्लजी, रामचन्द्र वर्मा तथा जगन्मोहन वर्मा के भी दर्शन होते । वहाँ प्रसादजी की भी चर्चा होती। उनकी कविताओं के सम्बन्ध में वैसी बातें सुनने में आती, जैसी आजकल नयी कविता के संबंध में सुनने में आती हैं। इन लोगो के ससर्ग से मेरी यही धारणा थी कि कविता का अर्थ ब्रजभाषा है । कुछ विशेष उत्साह न था, मगर मित्र ने आग्रह किया-चलो, तो चला गया। मेरे मकान के नजदीक ही वे रहते थे। जिस समय मैं पहुंचा, वे एक खटोले पर लेटे थे। एक नौकर तेल की मालिश कर रहा था। मेरे मित्र ने - जो अब इस संसार में नहीं है और उस समय कुछ नाटक, कुछ कविता लिखने का अभ्यास किया करते थे--मेरा परिचय कराय । उन्होंने एक बार मेरी ओर देखा और नौकर से कहा-सन्तू, पान ले आओ ! यह बात सन् उन्नीस सौ बीस की हो या इक्कीस की । एक सुन्दर जवान आदमी का नक्शा मेरे सामने उपस्थित था। गौर वर्ण, बड़ी आँखें, चौड़ा ललाट, दाढ़ी-मूंछ साफ। ये सभी बातें किसी को आकृष्ट करने के लिए पर्याप्त थीं। कुछ साहित्य की चर्चा भी चली, किन्तु इस समय स्मरण नहीं है कि वह किस प्रकार की थी। अवश्य ही किसी महत्वपूर्ण विषय पर नहीं थी ! अपनी एक पुस्तक उन्होंने मुझे दी । उनका व्यक्तित्व मुझे आकर्षक लगा। दूसरी बार मैं कुछ दिनों के बाद अकेले गया। संध्या का समय था और वे चौक जाने की तैयारी में थे। सुन्दर कुर्ता, बढ़िया साफ धोती, सिर पर गोल टोपी (जो किसी अच्छे उजले कपड़े की थी) लगाये-और हाथ में मोटा डण्डा लिये वे चले। पूछा-चौक चलियेगा? मैं तो उनसे मिलन ही गया था, बोला-चलिये ! गोदौलिया होते हुए, चौक होते हुए अपनी दूकान पर वे आये। उनकी दूकान संस्मरण पर्व : ८३