पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सी नयी बनी इमारत म कुछ प्रमुख भग्न मूर्तियाँ और टूटे अवशेष संग्रहीत कर सुरक्षित हो गए थे- शेष बहुत-सां बाहर ही पडा था । वह सिहो की मूर्ति जो हमारे गणतंत्र का प्रतीक होकर आज सारे मसार में प्रसिद्ध हुई है, उसका पॉलिश से चमकता हुआ आधार स्तम्भ तब बाहरी धरती पर पडा लोट रहा था । प्रसादजी की बैठक के भीतर जो कमरा था, वहाँ एक स्टैड पर काँच के केम मे सुरक्षित एक शिला या ब्रोज का 'बस्ट' था, कदाचित उनके पिता या पितामह का। दाहिने हाथ की तरफ जो कमरा था, रममे उनके संघनी व्यवमाय के सुगन्धित द्रव्य या अन्य योग सुरक्षित थे। नुस्वे मर्वत्र ही गम रखे जाते है। प्रसादजी को जब कोई नुस्खा मिलाना होता तो कांटे के आगे लक्डी का स्टैड रखकर वे अपने व्यवसाय के रहस्य (ट्रेड मीकेट) को लोगो से छिपा लेते थे। और एक बार की बड़ी याद आती है मुझे-प्रमादजी का वह प्रमन्न मुख तब घने विषाद से भर गया था, उनकी वाणी का उ-लाम गहरी वेदना मे रुद्ध | पत्नी-वियोग की मर्मान्तक चोट उन्हे पहुंची थी। उस समय की उनकी बातो मे जान पडा था कि वे साहित्य-माधना को ममाप्त कर व्य मन्यास ग्रहण कर लेगे। बादामी कागज के, फुलस्केप अभी माइज मे, पिन किये हए अठ पज उन्होंने मुझे देते हुए कहा 'लो, मेरा मन ठीर नहीं है, इसे तुम रा लो और प्रा र लेना ।' उन पेजो मे दो उनके लेख मे युक्त है, शेष ग्वाली है। एक कहानी का आरम्भ है वह, जिममे गाली माता की मनौती मानी हुई एक ग्रामवामिनी माता, प्जा के उद्देश्य से काली मन्दिर को जा रही है। पिछले लगभग चालीग र्षों से वे पाठ बडी सावधानी से मैने संभाल कर रखे है। सन् १९२० ईसवी मे असहयोग आन्दोलन को निमित्त बनाकर सालिज छोड, मैं मेरठ की 'व्याकुल भारत नाटक-कम्पनी' में भर्ती हो गया था। कम्पनी का पहला प्रयोग 'बुद्धदेव' था। पारसी नाटक कम्पनियो के दूषित प्रभाव से भिन्न वह नाटक भाषा, भावना, सदेश, परिन्छद और स्थापत्य की मार्थकता लिये था। वह नाटक-कम्पनी दिल्ली, मेरठ, लखनऊ आदि होती हुई बनारम पहुँची। प्रसादजी को हिन्दी नाटक के लिए उत्कट प्रेम था। मैं उन्हे बॉस-फाटक के मदन थियेटर पर 'बुद्धदेव' नाटक दिखाने ले गया। उहोने दो बजे रात तक वह नाटक देखा। महाभिनिष्क्रमण के दृश्य पर मैने उन्हे विह्वल होकर आंसू बहाते हुए पाया। इसके बाद फिर मेरी-उनकी कभी भेट नही हो पायी। कुछ पत्र-व्यवहार हुआ। एक पत्र उनका मेरे पास सुरक्षित है, और सुरक्षित है उनके लिखे हुए वे दोनों पेज, जिनसे प्रेरणा पाकर उस कहानी को पूरा करने की एक इच्छा है, और है प्रसादजी की वह सम्पत्ति उन्हे लौटाकर उनसे उऋण हो जाने की एक लालसा ! संस्मरण पर्व : ८९