पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४१९

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शुक्ल जी ने पुस्तक बन्द कर दी और वह आगे कुछ न कह सके । इसी समय श्री अम्बिकाप्रसाद गुप्त ने आवाज लगायी"मामा, साईस गाड़ी ले आया है।" जिज्जा जी, गौड़ जी और उग्र जी सारनाथ का प्रोग्राम सुनकर उनके साथ चल दिये और शेष अपने-अपने घर चले गये । काशी में गुज्जी पहलवान एक मशहूर अखाड़े के खलीफा (उस्ताद) थे। बाबू साहब को किसी समय कुश्ती का शौक था। यद्यपि गुज्जी की शागिर्दी नही की थी, परन्तु आदरवश जब कभी वह दुकान के बैठक में पान मुरती की तलब में आ जाता था, उसे उस्ताद कहकर आदर से बिठा लेते थे। एक दिन वह आया-दो मिनट बैठा होगा कि जरदा फांकते ही सलाम कह कर चल पड़ा। शिवपूजन सहाय जी ने पूछा, "आपकी तारीफ ?" बाबू साहब ने कहा, पुराना पहलवान है । दसियों पट्ठों को सरकारी दंगलों में लड़ा चुका है और स्वयं भी बड़े कांटे की आर पार कुश्ती लड़ता है। ___ गुज्जी दस कदम आगे चल कर रुक गया। वहां दो गउनहारियां (मंगलामुखी स्त्रियां) एक दूकान पर दुकानदार से उसके लडके की छठी की साई-पक्की कर रही थी । दूकानदार के अनुरोध पर सोहर गाने लगी। गुज्जी अधेड़ हो चला था परन्तु उन्हें गाते देखकर अपनी ठोड़ी पर उँगली रख कर उसी प्रकार स्वयं भी गाने लगा। उसकी यह जनानों वाली मुद्रा देखकर शिवपूजन बोले, "पहलवान और जनाने का विरोधाभास देखा, बाबू साहब ?" बाव माहब ने तुर्की बतुर्की जवाब दिया, "इसके पहले मैं अर्जुन और वृहन्नला के विरोधाभास के बारे में पढ़ चुका हूँ।" हम लोग इस हाजिर जबावी पर बहुत देर हंसते रहे। ___मैं उन दिनों डी० ए० वी० हाई स्कूल में पढ़ता था। शाम को साहित्य विद्यालय की क्लास लगती थी, आचार्य थे कविवर भगवान दीन जी 'दीन' । श्री कृष्णदेव प्रसाद गौड़ भी एक क्लास लेते थे। 'दीन' जी की बड़ी बहन ने लक्षवर्तिका का अनुष्ठान किया था। ब्राह्मणों को एक रुपया, अधसेरी का गुड़दार पेड़ा और धोती दी थी। अध्यापक और छात्र भी आये थे । अन्तिम ब्राह्मण सुलफे के दम से लाल-लाल आंतें किये, माथे पर सिन्दूर और रोली की पाड़ जमाये गिरता पडता तिलक कराने को आया। तव तक धोतिवों का स्टाक खत्म हो चुका था। 'दीन' जी को बहाना मिल गया । बोले, "तुम पुरोहित होकर नशा करते हो? इसके माने हैं कि रुपये वाले हो-माल मारते हो। धोतियां सात्विक वृत्ति के गरीब ब्राह्मणों के लिए है। तुम्हें नहीं मिलेगी।" वह सबके साथ भोजन तो कर ही चुका था। अपने हिस्से का पेड़ा और रुपया लेकर संस्मरण पर्व : ११५