पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४४६

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वाले थे। वैसे ही रूपनारायण भी ! मैं तब स्वरों के वैभव को ऐसा नहीं समझता था, और विनोद को प्रिय था तमाशा मात्र । तमाशा के शौकीन हम सभी, और जयशंकर तो बहुत ! उनके घर और दूकान के बीच मे दाल की मंडी-बनारस की रूपसियो का सनातन बाजार । सौ मे अस्सी बार, पूरे दल के साथ 'प्रसाद' दाल की मडी ही की राह से अपनी दूकान पर आते। सिद्धेश्वरी का कोठा तो उन दिनो ठीक जगह के सामने था, जहां वह शाम से नौ बजे रात तक तम्बाकू और साहित्य का भाव-ताव समझा करते थे। सो साहब, सन् '२८ के उस दिन विनोद की छत पर, नौ से साढे बारह बजे रात तक बड़े रंग रहे । 'प्रसाद' फर्माइश करते, सिद्धेश्वरी प्रसन्न कोकिल-कण्ठ से गाती। मानमन्दिर मुहल्ला-चारो ओर गझन मकान--गुणवन्ती गायिका की तानो से सारा वातावरण गुजायमान हो उठा। दूसरे लोग-लुगाई अपनी-अपनी छत पर ध्यानावस्थित सोचने लगे कि व्यासजी के घर पुत्र हुआ है या किसी की गादी है ! पर यहां न पुत्र-जन्मोत्सव, न शादी-था चार विचारवानो की अवारगी का रूमझुम ! सिद्धेश्वरी की आँखें बडी, मेरी बडी अलकं-गणिका ने गुणवन्त से पूछा कि यह कौन है ? 'प्रसाद' ने मनचली मुस्कराहट मे लपेट कर आकर्षक दुष्टता से उत्तर दिया-"ये बड़े पहुंचे हुए औलिया फकीर है।" जाते-जाते सिद्धेश्वरी ने नाटकीय, साहित्यिक और नमकीन ढंग मे "जय ! शंकर !!" कहकर प्रसाद को नमस्कार किया। 'उग्र' ने व्यंग्य किया है कि प्रसाद थे इमारत-पसन्द ! यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूँ कि प्रसाद मान-मर्यादा के प्रति सदैव ध्यान रखते थे। कोई बात ऐसी न हो, जिमसे उनके सम्मान मे लाछन लगे। इसे वे किसी स्थिति में सहन नही कर सकते थे। उन्हे 'उग्र' की उग्रता पमन्द नही थी। उग्र के साथ रहने पर जो कठोर मत्य उद्दण्डता के रूप में प्रकट होता, उससे प्रसादजी खिचे-से रहते थे। प्रसादजी की दुकान पर प्रायः कुछ ऐसे लोग भी आने लगे जो साधारण श्रेणी के व्यक्ति थे। वे केवल उनकी प्रशसा करते, हाँ मे हां मिलाते रहते। पूरी दरबारदारी होती रहती। यह मुझे तनिक भी पसन्द नही था। मैंने एक दिन रूखे स्वर मे जब कहा तो प्रसाद कहने लगे-क्या ऐसे लोगो को मैं मारकर भगाएं! ____एक दिन एक महाशय आये, वे हिन्दी-साहित्य का इतिहाम लिख रहे थे। बहुत देर से प्रसाद की तारीफ कर रहे थे-आप धन्य है, आपकी रचनाओं पर मैं मुग्ध है, आप हिन्दी के गौरव है, आदि । सुनते-सुनते तबीयत ऊब उठी। प्रसाद बड़े प्रेम १४२: प्रसाद वाङ्मय