पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

मित्रो मे खटपट होने पर प्रसादजी की यही जीवन-नीति थी ! उन दिनों हिन्दी साहित्य के बाजार में तू-तू-मैं-मैं का युग था। दलबन्दी होने लगी। महारथियों ने अपना-अपना अखाड़ा जोरदार बनाया। प्रसाद-साहित्य के समर्थक और उनके स्कूल के समालोचकों में श्री रामनाथ लाल 'सुमन' और पं० नन्ददुलारे वाजपेयी अपना विशेष स्थान बना चुके थे। इन लोगों को मेरा और प्रसादजी का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। प्रसादजी जिसे महयोग देते थे, पूरी तरह । कभी पीछे नही हटते थे। 'सुमन' पहले जिस मकान मे रहते थे, वहाँ सुमन का प्रेम-सम्बन्ध हो गया था। कुछ दिनों मे रहस्य स्पष्ट होने लगा। अन्त मे एक दिन वातावरण बड़ा भयानक हो उठा । सुमन वहाँ से चुपचाप सीधे प्रसादजी के यहां आये। उन्होंने बड़े कारुणिक ढंग से अपनी कहानी प्रसाद को सुनाई। प्रसाद को दया आ गई। उनके अतिरिक्त कोई भी 'सुमन' का सहायक नहीं था। प्रसाद ने अपने एक नौकर गंगा हज्जाम को बुलाकर कहा -तुम वहाँ जाकर इनका सब सामान उठा लाओ । इनके घर के लोगों का भी उचित प्रबन्ध कर देना। प्रस... पना एक मकान 'सुमन के रहने के लिए दे दिया। गगा ने वहाँ का पूरा विवरण सुनाया। वह मकान-मालिक बड़ा दुष्ट प्रकृति का आदमी था। प्रसादजी का नाम सुनकर ही वह शिथिल हुआ, अन्यथा उसके चक्र मे पडकर 'सुमन' को अनेक संकटों का सामना करना पडता। गगा वहाँ से सब सामान और सुमन के घर के लोगों को ले आया। 'सुमन' अब प्रसाद के मकान में ही मपरिवार रहने लगे। प्रति दिन प्रमाद की मंडली मे सुमन दिग्वाई पडते । उनका लटका हुआ मुख और गम्भीर मुद्रा, हम लोगों के मनोरंजन को उत्साहित करती थी। अनेक घटनाओं को सुनकर मुमन कभी-कभी विचलित हो उठने। एक दिन प्रसादजी ने बतलाया कि 'सुमन' कमरा बन्द कर पड़े है, किसी तरह द्वार नही खोलते। मैंने कहा-मैं अभी जाकर उसे लाता हूँ। ___मैं गया। बहुत प्रयत्न करने पर भी सुमन सामने नहीं आये। अन्त में विवश होकर मैं लौट आया। उस दिन की घटना का वर्णन 'सुमन' के एक पत्र से होता है। सौरभ कुटी, काशी १८-३-१९२७ प्रिय विनोद, मेरे जीवन के बारे मे सब घटनाये न जानते हुए, तुम उसका खाका जानतेबूझते हो। अभी आज सबेरे तक मेरी तबीयत इस योग्य थी कि मैं हंसता, बोलता, संस्मरण पर्व : १५१