पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५०४

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बैठने का उपक्रम करने लगे। तब उन्हें अपने हुक्कों की याद आयो। प्रायः हुक्के अपने स्थान से हट गये थे, इसलिए कोन व्यक्ति कौन-सा हुक्का पी रहा था, पहचानना मुश्किल हो गया। सहसा निरालाजी ने झपट कर एक हुक्का उठा लिया और बोले-"यही मेरा है। यह और किसी का हो ही नहीं सकता।" यह कहकर उस पर ताजी भरी चिलम रखकर आनन्द से पीने लगे। अन्य लोग ऐसा साहस न कर सके । उनके लिए दूसरे हुक्के मंगाने पड़े । अब संगीत की सभा जुड़ी। तब तक रात्रि के दस से अधिक बज चुके थे। उस समय के काशी के एक विशिष्ट सितारवादक ने, जिनका नाम मुझे इस वक्त याद नही आ रहा, सितार के तारों के साथसाथ हृदयों को भी झंकृत कर दिया। उन्होंने प्रसाद की प्रिय रागिनी बागेश्वरी बजायी। लोग भाव-विभोर हो झमने लगे। मीड़ों और मूर्च्छनाओं के साथ-याथ सुनने वाले के हृदय मीड़ों और झरनों के साथ झूम-झूम उठते थे। महाकवि प्रसाद के आवासीय परिसर में रात के दो-तीन प्रहर किस भांति बीत गये, किसी को पता नही चला। संगीत सभा की समाप्ति के पश्चात् घर लौटते समय हमे अपना ही श्वासोच्छ्वास किसी अज्ञात सुरभि मे सना प्रतीत हो रहा था। आज भी जब उन मधुर क्षणों की याद आती है, तो सहसा मुख से निकल पड़ता है-आह ! "वे कुछ दिन कितने सुंदर थे।" (वे सितार वादक उस्ताद आशिक अली थे-सं०) ___उन्ही दिनों घटित हुई एक अन्य घटना ने मुझे प्रसादजी के और भी निकट पहुंचा दिया। उन दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे आचार्य श्यामसुन्दरदास । 'शास्त्री' उपाधिधारी एक दक्षिण भारतीय सज्जन, नाम स्मरण नही, आर्ट्स कालेज के प्रिंसिपल थे। प्रतिवर्ष सत्रारम्भ के समय आर्ट्स कालेज के प्रिंसिपल उससे संबद्ध सभी साहित्यिकसंस्थाओं को सास्कृतिक-छात्र-अनुदान दिया करते थे। उस वर्ष अन्य विभागों की तुलना में हिन्दी विभाग को कम अनुदान मिला। बाबू श्यामसुन्दरदासजी ने शास्त्रीजी को पत्र लिखकर इसके प्रति अपना विरोध व्यक्त किया तथा उनसे हिन्दी विभाग की अनुदान राशि भी अन्य विभागों के बराबर करने का आग्रह किया। साथ ही, ऐसा न होने पर उस वर्ष हिन्दी विभाग द्वारा विश्वविद्यालय मे कोई भी कार्यक्रम न करने की चेतावनी भी उन्होंने दे डाली। प्रिंसिपल शास्त्रीजी कुछ मामले में बड़े कट्टर थे। उनके कक्ष मे जूते पहन कर जाने की सख्त मनाही थी। बाबू श्यामसुन्दर दास जी इसके लिए तैयार नहीं थे। अतः उक्त विवाद के चलते बाबू साहब ने उस सत्र के हिन्दी समिति के समस्त कार्यक्रम रद्द कर दिये। तुलसी जयन्ती आयी और चली गई, विभाग में कोई आयोजन नही हुआ। भारतेन्दु जयन्ती भी निकट आ गई। उन दिनों में विभागीय २००:प्रसाद वाङ्मय