पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५२८

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यह परिचय एक हृदयगाही प्रेम में परिणत हो गया। प्रसादजी का पर्याप्त समय इस आकर्षण के कारण उस परिवार में व्यतीत होता था। उन्होंने अपनी आदरणीया भाभी से परामर्श किया और उनसे यही उत्तर मिला कि तुम दोनों विवाह-सूत्र में बद्ध नहीं हो सकते क्योंकि रक्तगत अन्तर अभी सात पुरुषों का नहीं हुआ है । अतएव इस प्रेम की दुखान्त परिणति हो गई । कालान्तर में उस किशोरी का अन्यत्र विवाह हो गया, और रूखा शीशा जो टे तो सब कोई सुन पाता। कुचला जाना हृदय कुसुम का किसे सुनाई पड़ता है ।।-(प्रेमपथिक) इस पंक्ति में उसी विरह की वेदना है। किन्तु, उस विवाह में वे निस्संग भाव से सम्मिलित रहे जो उनके अनुपम चारित्र्य का प्रमाण है। परिवार की परम्परा, अनुशासनबद्ध संयमी जीवन के कारण प्रसादजी वियोग का विष-पान कर गये। प्रेमपथिक में इम अनन्य प्रेम की झलक है-कसक है । प्रेमपथिक में बिद्ध-हृदय के इस चीत्कार के रहस्य को क्या कोई जानता है ? प्रेमपथिक में मर्माहत वेदना की वैसी अभिव्यक्ति है जिसे कोई सुन नही पाया, कोई देख न सका और वह महान आत्मा अपनी व्यथा किसे- किस प्रकार प्रकट करता, किससे सहानुभूति पाता। यह अन्तर्वेदना प्रसादजी के जीवन के साथ रही और साथ गयी। उनका जीवन एक खुली किताव जैसा था, किन्तु उसे पढ़ने की क्षमता चाहिए। लहर में संकलित आत्मकथा कविता वस्तुत: आत्मकथा ही है-सम्पूर्ण ! आज उसकी पंक्तियों के अर्थ बताऊँ तो अनेक लोगों का कोपभाजन वनगा। किन्तु, 'भूलें अपनी या प्रवंचना औरों को पढ़कर वे प्रवंचक तो मन ही मन समझ गए थे। व्यास ने कहीं कहा है प्रसादजी 'डुप्लिकेट' थे : अवश्य थे किन्तु ब्याम के अर्थ में नही प्रत्युत योगवासिष्ठ वाले अर्थ में-जहां उपदिष्ट हैं बहिः कृत्रिम संरंभहृदि संरंभ वजितः । कर्ता बहिरकन्तिलॊके विहर राघव ॥ और इस 'डुप्लिकेशन' तक पहुंचने में व्यास अनेक जन्मों के बाद भी सफल होंगे या नहीं सन्देह है। ___ एक संन्यासी का समागम ___एक संन्यामी के प्रति प्रसादजी की बड़ी श्रद्धा थी। संन्यासी प्रायः प्रसादजी के पास आते थे, क्यों आते थे, यह भी रहस्य ही रह गया। वह संन्यासी इटावा के थे, कठोर भाषी पूरे संन्यासी, रुक्ष और गम्भीर। घोर शीतकाल में प्रसादजी ने उस संन्यासी को एक मूल्यवान कम्बल दिया। लेकिन जब दूसरे दिन वह आये तो कम्बल न था-वह उसी प्रकार शीत से कष्ट २२४ : प्रसाद वाङ्मय